नक्षत्र वर्गीकरण : स्वाभाव के आधार पर -
संज्ञा या स्वाभाव के आधार पर नक्षत्रो को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है!
१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र :- ४ रोहिणी, १२ उत्तरा फाल्गुनी, २१ उत्तरा षाढा, २६ उत्तरा भाद्रपद !
इन नक्षत्रों में स्थिर कार्य करना चाहिए अर्थात वह कार्य जिनमे स्थिरता की जरुरत हो!
जैसे- ग्रह प्रवेश,बीज बोना, व्यपारारम्भ, ग्रहशांति आदि के कार्य, बाग़- बगीचा बनवाना,
धर्मशाला बनवाना, मंदिर बनवाना, गाना बजाना, कपडा पहनना, प्रेम करना,अलंकार
धारण करना,पदग्रहण करना आदि !
नोट- यदि कोई व्यक्ति स्थिर नक्षत्रों के कार्य चर नक्षत्रों या किन्ही और नक्षत्रों में करता है तो उसे हानी ही होती है!
उदाहरण के लिए आप ने चर में नए वस्त्र ख़रीदे या कोई मकान बनवाया तो बार बार वस्त्रों को और मकान को बदलना पड़ेगा!
ऐसा नहीं है की मकान फिर से बनवाना पड़ेगा, हाँ यह भी हो सकता है की मकान में ही फेर बदल करते रहना पड़े !
क्योंकि चर का स्वाभाव ही चलायमान है!
अतः वह कार्य जिनमे मन को स्थिर रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
२. चल (चर) नक्षत्र:- ७ पुनर्वसु, १५ स्वाति, २२ श्रवण, २३ धनिष्ठा, २४ शतभिषा!
इनमे सवारी करना, यात्रा, मंत्र सिद्धि, हल चलाना, वाहनों को खरीदना, आदि शुभ है!
वह कार्य जिनमे मन को चलायमान रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र:-२ भरणी, १० मघा, ११ पूर्वा फाल्गुनी, २० पूर्वा षाढा, २५ पूर्वा भाद्रपद !
इनमे उग्र कार्य करना अच्छा होता है!
जैसे- तांत्रिक प्रयोग, जहर देना, आग लगाना, मुकद्दमा, दायर करना, शत्रु पर आक्रमण, संधि कार्य, चतुराई चालाकी के काम आदि !
४.साधारण (मिश्र) नक्षत्र :- ३ कृतिका, १६ विशाखा !
इनमे सामान्य कार्य, अग्नि कार्य और उग्र नक्षत्र के कार्य भी किये जा सकते है !
५.क्षिप्र (लघु) नक्षत्र:- १ अस्वनी, ८ पुष्य, १३ हस्त, २८ अभिजित !
इनमे व्यपारारम्भ, स्त्री-पुरष से मैत्री, साँझा, ज्ञान प्राप्ति, खेलना,औषधि तैयार करना,
चित्रकारी, शिल्पकारी,आदि कार्य करना लाभकारी होता है !
इसमें चर नक्षत्रों के काम भी किये जा सकते है!
६.मृदु (मैत्र ) नक्षत्र :- ५ मृगशिरा , १४ चित्रा, १७ अनुराधा, २७ रेवती !
इनमे सभी मित्रता पूर्ण और कोमल कार्य करने चाहिए !
जैसे-गीत गाना, नाटक करना, खेल-कूद, चित्र बनना आदि !
७. तीक्ष्ण (दारुण ) नक्षत्र :- ६ आदर, ९ आश्लेषा, १८ ज्येष्ठा, १९ मूल !
इनमे उग्र कार्य, फूट डालना, प्रहार करना, भूत-प्रेत बाधा निवारण, जादू टोना आदि
करना ठीक होता है !
ஐ जन्मानुसार विशेष नक्षत्रयोग ஐ
विषकन्या योग :
कुछ नक्षत्र ऐसे होते है जो विशेष तिथि व वार पर पड़े तो उस समय पर जन्मी कन्या विषकन्या कहलाती है !
१. आश्लेषा या शतभिषा + रविवार + द्वितीया !
२. कृतिका, विशाखा या शतभिषा + रविवार + द्वादशी !
३. आश्लेषा, विशाखा या शतभिषा + मंगलवार + सप्तमी !
४. आश्लेषा + शनिवार + द्वितीया !
५. शतभिषा + मंगलवार + द्वादशी !
६. कृतिका + शनिवार + सप्तमी या द्वादशी !
इस योग में पैदा हुई बालिका के शुभ जीवन के लिए शांति करनी चाहिए ! ऐसी बालिका का विवाह ऐसे बालक से किया जाना चाहिए जिसकी जन्म कुंडली में दीर्घायु योग के साथ साथ मंगल दोष अधिक हो ! इससे इस दोष का परिहार हो जाता है !
सार्पशीर्ष योग :
सूर्य व चन्द्रमा जब एक ही नक्षत्र में रहे तब अगर अनुराधा नक्षत्र हो, यह स्थिति केवल मार्गशीर्ष मास में ही संभव है, तब उस अनुराधा नक्षत्र का तीसरा व चौथा चरण सार्पशीर्ष कहलाता है ! यह जन्म के लिए जितना अशुभ है उतना ही मुहूर्त शास्त्र में किसी काम के लिए भी अशुभ माना जाता है !
दोषकारक अन्य जन्म नक्षत्र :
चित्र के प्रथम, द्वितीय चरण में, पुष्य के प्रथम द्वितीय चरण में , पूर्वाषाढ़ा के तृतीय चरण में व उत्तराषाढ़ा के प्रथम चरण में माता-पिता, भाई व स्वयं के लिए हानिप्रद होता है ! लेकिन नक्षत्रौं का फल हमेशा नहीं रहता अपितु १ वर्ष तक ही दोष दिखाई देता है !
ज्वालामुखी योग :
तिथि व नक्षत्रों के निम्न संयोगो से इस योग का निर्माण होता है !
१. प्रतिपदा को मूल !
२. पंचमी को भरणी !
३. षष्ठी को कृतिका !
४. नवमी को रोहिणी !
५. दशमी को आश्लेषा !
इस योग में पैदा हुए बच्चे को मृत्यु का प्रबल भय होता है ! यह योग यात्रा व सभी नए कार्यों के आरम्भ हेतु भी वर्जित है ! इसमें शुरू किये गए काम में असफलता ही मिलती है !
ஐ नक्षत्रों का शरीर पर स्थान ஐ
नक्षत्रों को शरीर पर विभाजित करने का वर्गीकरण उस वक़्त बहुत उपयोगी होता है जब किसी जातक की कुंडली का सही पता नहीं होता है यह देखने हो की प्रस्तुत कुंडली उसी जातक की है या नहीं ;अलग अलग ग्रह विभिन्न नक्षत्रों पर अपना एक अलग प्रकार का चिन्ह अथवा निशान देते है ! इतना ही नहीं चिकित्सा ज्योतिष में नक्षत्र वर्गीकरण : स्वाभाव के आधार पर -
संज्ञा या स्वाभाव के आधार पर नक्षत्रो को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है!
१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र :- ४ रोहिणी, १२ उत्तरा फाल्गुनी, २१ उत्तरा षाढा, २६ उत्तरा भाद्रपद !
इन नक्षत्रों में स्थिर कार्य करना चाहिए अर्थात वह कार्य जिनमे स्थिरता की जरुरत हो!
जैसे- ग्रह प्रवेश,बीज बोना, व्यपारारम्भ, ग्रहशांति आदि के कार्य, बाग़- बगीचा बनवाना,
धर्मशाला बनवाना, मंदिर बनवाना, गाना बजाना, कपडा पहनना, प्रेम करना,अलंकार
धारण करना,पदग्रहण करना आदि !
नोट- यदि कोई व्यक्ति स्थिर नक्षत्रों के कार्य चर नक्षत्रों या किन्ही और नक्षत्रों में करता है तो उसे हानी ही होती है!
उदाहरण के लिए आप ने चर में नए वस्त्र ख़रीदे या कोई मकान बनवाया तो बार बार वस्त्रों को और मकान को बदलना पड़ेगा!
ऐसा नहीं है की मकान फिर से बनवाना पड़ेगा, हाँ यह भी हो सकता है की मकान में ही फेर बदल करते रहना पड़े !
क्योंकि चर का स्वाभाव ही चलायमान है!
अतः वह कार्य जिनमे मन को स्थिर रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
२. चल (चर) नक्षत्र:- ७ पुनर्वसु, १५ स्वाति, २२ श्रवण, २३ धनिष्ठा, २४ शतभिषा!
इनमे सवारी करना, यात्रा, मंत्र सिद्धि, हल चलाना, वाहनों को खरीदना, आदि शुभ है!
वह कार्य जिनमे मन को चलायमान रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र:-२ भरणी, १० मघा, ११ पूर्वा फाल्गुनी, २० पूर्वा षाढा, २५ पूर्वा भाद्रपद !
इनमे उग्र कार्य करना अच्छा होता है!
जैसे- तांत्रिक प्रयोग, जहर देना, आग लगाना, मुकद्दमा, दायर करना, शत्रु पर आक्रमण, संधि कार्य, चतुराई चालाकी के काम आदि !
४.साधारण (मिश्र) नक्षत्र :- ३ कृतिका, १६ विशाखा !
इनमे सामान्य कार्य, अग्नि कार्य और उग्र नक्षत्र के कार्य भी किये जा सकते है !
५.क्षिप्र (लघु) नक्षत्र:- १ अस्वनी, ८ पुष्य, १३ हस्त, २८ अभिजित !
इनमे व्यपारारम्भ, स्त्री-पुरष से मैत्री, साँझा, ज्ञान प्राप्ति, खेलना,औषधि तैयार करना,
चित्रकारी, शिल्पकारी,आदि कार्य करना लाभकारी होता है !
इसमें चर नक्षत्रों के काम भी किये जा सकते है!
६.मृदु (मैत्र ) नक्षत्र :- ५ मृगशिरा , १४ चित्रा, १७ अनुराधा, २७ रेवती !
इनमे सभी मित्रता पूर्ण और कोमल कार्य करने चाहिए !
जैसे-गीत गाना, नाटक करना, खेल-कूद, चित्र बनना आदि !
७. तीक्ष्ण (दारुण ) नक्षत्र :- ६ आदर, ९ आश्लेषा, १८ ज्येष्ठा, १९ मूल !
इनमे उग्र कार्य, फूट डालना, प्रहार करना, भूत-प्रेत बाधा निवारण, जादू टोना आदि
करना ठीक होता है !
ஐ जन्मानुसार विशेष नक्षत्रयोग ஐ
विषकन्या योग :
कुछ नक्षत्र ऐसे होते है जो विशेष तिथि व वार पर पड़े तो उस समय पर जन्मी कन्या विषकन्या कहलाती है !
१. आश्लेषा या शतभिषा + रविवार + द्वितीया !
२. कृतिका, विशाखा या शतभिषा + रविवार + द्वादशी !
३. आश्लेषा, विशाखा या शतभिषा + मंगलवार + सप्तमी !
४. आश्लेषा + शनिवार + द्वितीया !
५. शतभिषा + मंगलवार + द्वादशी !
६. कृतिका + शनिवार + सप्तमी या द्वादशी !
इस योग में पैदा हुई बालिका के शुभ जीवन के लिए शांति करनी चाहिए ! ऐसी बालिका का विवाह ऐसे बालक से किया जाना चाहिए जिसकी जन्म कुंडली में दीर्घायु योग के साथ साथ मंगल दोष अधिक हो ! इससे इस दोष का परिहार हो जाता है !
सार्पशीर्ष योग :
सूर्य व चन्द्रमा जब एक ही नक्षत्र में रहे तब अगर अनुराधा नक्षत्र हो, यह स्थिति केवल मार्गशीर्ष मास में ही संभव है, तब उस अनुराधा नक्षत्र का तीसरा व चौथा चरण सार्पशीर्ष कहलाता है ! यह जन्म के लिए जितना अशुभ है उतना ही मुहूर्त शास्त्र में किसी काम के लिए भी अशुभ माना जाता है !
दोषकारक अन्य जन्म नक्षत्र :
चित्र के प्रथम, द्वितीय चरण में, पुष्य के प्रथम द्वितीय चरण में , पूर्वाषाढ़ा के तृतीय चरण में व उत्तराषाढ़ा के प्रथम चरण में माता-पिता, भाई व स्वयं के लिए हानिप्रद होता है ! लेकिन नक्षत्रौं का फल हमेशा नहीं रहता अपितु १ वर्ष तक ही दोष दिखाई देता है !
ज्वालामुखी योग :
तिथि व नक्षत्रों के निम्न संयोगो से इस योग का निर्माण होता है !
१. प्रतिपदा को मूल !
२. पंचमी को भरणी !
३. षष्ठी को कृतिका !
४. नवमी को रोहिणी !
५. दशमी को आश्लेषा !
इस योग में पैदा हुए बच्चे को मृत्यु का प्रबल भय होता है ! यह योग यात्रा व सभी नए कार्यों के आरम्भ हेतु भी वर्जित है ! इसमें शुरू किये गए काम में असफलता ही मिलती है !
ஐ नक्षत्रों का शरीर पर स्थान ஐ
नक्षत्रों को शरीर पर विभाजित करने का वर्गीकरण उस वक़्त बहुत उपयोगी होता है जब किसी जातक की कुंडली का सही पता नहीं होता है यह देखने हो की प्रस्तुत कुंडली उसी जातक की है या नहीं ;अलग अलग ग्रह विभिन्न नक्षत्रों पर अपना एक अलग प्रकार का चिन्ह अथवा निशान देते है ! इतना ही नहीं चिकित्सा ज्योतिष में नक्षत्र वर्गीकरण : स्वाभाव के आधार पर -
संज्ञा या स्वाभाव के आधार पर नक्षत्रो को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है!
१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र :- ४ रोहिणी, १२ उत्तरा फाल्गुनी, २१ उत्तरा षाढा, २६ उत्तरा भाद्रपद !
इन नक्षत्रों में स्थिर कार्य करना चाहिए अर्थात वह कार्य जिनमे स्थिरता की जरुरत हो!
जैसे- ग्रह प्रवेश,बीज बोना, व्यपारारम्भ, ग्रहशांति आदि के कार्य, बाग़- बगीचा बनवाना,
धर्मशाला बनवाना, मंदिर बनवाना, गाना बजाना, कपडा पहनना, प्रेम करना,अलंकार
धारण करना,पदग्रहण करना आदि !
नोट- यदि कोई व्यक्ति स्थिर नक्षत्रों के कार्य चर नक्षत्रों या किन्ही और नक्षत्रों में करता है तो उसे हानी ही होती है!
उदाहरण के लिए आप ने चर में नए वस्त्र ख़रीदे या कोई मकान बनवाया तो बार बार वस्त्रों को और मकान को बदलना पड़ेगा!
ऐसा नहीं है की मकान फिर से बनवाना पड़ेगा, हाँ यह भी हो सकता है की मकान में ही फेर बदल करते रहना पड़े !
क्योंकि चर का स्वाभाव ही चलायमान है!
अतः वह कार्य जिनमे मन को स्थिर रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
२. चल (चर) नक्षत्र:- ७ पुनर्वसु, १५ स्वाति, २२ श्रवण, २३ धनिष्ठा, २४ शतभिषा!
इनमे सवारी करना, यात्रा, मंत्र सिद्धि, हल चलाना, वाहनों को खरीदना, आदि शुभ है!
वह कार्य जिनमे मन को चलायमान रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र:-२ भरणी, १० मघा, ११ पूर्वा फाल्गुनी, २० पूर्वा षाढा, २५ पूर्वा भाद्रपद !
इनमे उग्र कार्य करना अच्छा होता है!
जैसे- तांत्रिक प्रयोग, जहर देना, आग लगाना, मुकद्दमा, दायर करना, शत्रु पर आक्रमण, संधि कार्य, चतुराई चालाकी के काम आदि !
४.साधारण (मिश्र) नक्षत्र :- ३ कृतिका, १६ विशाखा !
इनमे सामान्य कार्य, अग्नि कार्य और उग्र नक्षत्र के कार्य भी किये जा सकते है !
५.क्षिप्र (लघु) नक्षत्र:- १ अस्वनी, ८ पुष्य, १३ हस्त, २८ अभिजित !
इनमे व्यपारारम्भ, स्त्री-पुरष से मैत्री, साँझा, ज्ञान प्राप्ति, खेलना,औषधि तैयार करना,
चित्रकारी, शिल्पकारी,आदि कार्य करना लाभकारी होता है !
इसमें चर नक्षत्रों के काम भी किये जा सकते है!
६.मृदु (मैत्र ) नक्षत्र :- ५ मृगशिरा , १४ चित्रा, १७ अनुराधा, २७ रेवती !
इनमे सभी मित्रता पूर्ण और कोमल कार्य करने चाहिए !
जैसे-गीत गाना, नाटक करना, खेल-कूद, चित्र बनना आदि !
७. तीक्ष्ण (दारुण ) नक्षत्र :- ६ आदर, ९ आश्लेषा, १८ ज्येष्ठा, १९ मूल !
इनमे उग्र कार्य, फूट डालना, प्रहार करना, भूत-प्रेत बाधा निवारण, जादू टोना आदि
करना ठीक होता है !
ஐ जन्मानुसार विशेष नक्षत्रयोग ஐ
विषकन्या योग :
कुछ नक्षत्र ऐसे होते है जो विशेष तिथि व वार पर पड़े तो उस समय पर जन्मी कन्या विषकन्या कहलाती है !
१. आश्लेषा या शतभिषा + रविवार + द्वितीया !
२. कृतिका, विशाखा या शतभिषा + रविवार + द्वादशी !
३. आश्लेषा, विशाखा या शतभिषा + मंगलवार + सप्तमी !
४. आश्लेषा + शनिवार + द्वितीया !
५. शतभिषा + मंगलवार + द्वादशी !
६. कृतिका + शनिवार + सप्तमी या द्वादशी !
इस योग में पैदा हुई बालिका के शुभ जीवन के लिए शांति करनी चाहिए ! ऐसी बालिका का विवाह ऐसे बालक से किया जाना चाहिए जिसकी जन्म कुंडली में दीर्घायु योग के साथ साथ मंगल दोष अधिक हो ! इससे इस दोष का परिहार हो जाता है !
सार्पशीर्ष योग :
सूर्य व चन्द्रमा जब एक ही नक्षत्र में रहे तब अगर अनुराधा नक्षत्र हो, यह स्थिति केवल मार्गशीर्ष मास में ही संभव है, तब उस अनुराधा नक्षत्र का तीसरा व चौथा चरण सार्पशीर्ष कहलाता है ! यह जन्म के लिए जितना अशुभ है उतना ही मुहूर्त शास्त्र में किसी काम के लिए भी अशुभ माना जाता है !
दोषकारक अन्य जन्म नक्षत्र :
चित्र के प्रथम, द्वितीय चरण में, पुष्य के प्रथम द्वितीय चरण में , पूर्वाषाढ़ा के तृतीय चरण में व उत्तराषाढ़ा के प्रथम चरण में माता-पिता, भाई व स्वयं के लिए हानिप्रद होता है ! लेकिन नक्षत्रौं का फल हमेशा नहीं रहता अपितु १ वर्ष तक ही दोष दिखाई देता है !
ज्वालामुखी योग :
तिथि व नक्षत्रों के निम्न संयोगो से इस योग का निर्माण होता है !
१. प्रतिपदा को मूल !
२. पंचमी को भरणी !
३. षष्ठी को कृतिका !
४. नवमी को रोहिणी !
५. दशमी को आश्लेषा !
इस योग में पैदा हुए बच्चे को मृत्यु का प्रबल भय होता है ! यह योग यात्रा व सभी नए कार्यों के आरम्भ हेतु भी वर्जित है ! इसमें शुरू किये गए काम में असफलता ही मिलती है !
ஐ नक्षत्रों का शरीर पर स्थान ஐ
नक्षत्रों को शरीर पर विभाजित करने का वर्गीकरण उस वक़्त बहुत उपयोगी होता है जब किसी जातक की कुंडली का सही पता नहीं होता है यह देखने हो की प्रस्तुत कुंडली उसी जातक की है या नहीं ;अलग अलग ग्रह विभिन्न नक्षत्रों पर अपना एक अलग प्रकार का चिन्ह अथवा निशान देते है ! इतना ही नहीं चिकित्सा ज्योतिष में भी पीड़ित नक्षत्रों के द्वारा यह ज्ञात किया जाता है की जातक को किस स्थान पर रोग की सम्भावना ज्यादा है और कहा बिलकुल नहीं है ! यह हमेशा से शोध का विषय रहा है !
नक्षत्रों को शरीरांगो पर विभाजित करने में विद्वानों में एक से अधिक मत रहे है !
१.शास्त्रीय मत से नक्षत्र पुरुष का विचार :
शरीर के अंगो पर सभी नक्षत्रों का कोई क्रम नहीं है !
"वामनपुराणानुसार " इनका विभाजन निम्नलिखित है !
क्रम. नक्षत्र - शरीरांग
१. अश्विनी - दोनों घुटने
२. भरणी - सिर
३. कृतिका - कटिप्रदेश
४. रोहिणी - दोनों टांगे
५. मृगशिरा - दोनों नेत्र
६. आर्द्रा - बाल
७. पुनर्वसु - अंगुलियाँ
८. पुष्य - मुख
९. आश्लेषा - नख
१०. मघा - नाक
११. पूर्वा फाल्गुनी - गुप्तांग
१२. उत्तरा फाल्गुनी- गुप्तांग
१३. हस्त - दोनों हाथ
१४. चित्रा - मस्तक
१५. स्वाति - दांत
१६. विशाखा - दोनों भुजाएं
१७. अनुराधा - ह्रदय, वक्षस्थल
१८. ज्येष्ठा - जिव्हा
१९. मूल - दोनों पैर
२०. पूर्वा षाढा - दोनों जांघें
२१. उत्तरा षाढा - दोनों जांघें
२२. श्रवण - दोनों कान
२३. धनिष्ठा - पीठ
२४. शतभिषा - ठोड़ी के दोनों पार्श्व
२५. पूर्वा भाद्रपद - बगल
२६. उत्तरा भाद्रपद - बगल
२७. रेवती - दोनों कांख
नोट : -
i. शरीर में निशान और चोट का निश्चय करने में इसका उपयोग होता है ! क्रूर का बुरे ग्रह कुंडली में जिस नक्षत्र में गये हो उसी अंग पर घाव या निशान पैदा कर देते है !
ii. सूर्य चन्द्रमा के नक्षत्रानुसार उस अंग में चिन्ह आदि जन्मजात होता है या बना देता है !
iii. दशा-अन्तर्दशा में भी लग्ने वाली चोट का निर्धारण इसी से किया जाता है !
iv. जो नक्षत्र पापयुक्त हो, निर्बल ग्रह से युक्त हो वही अंग पीड़ित, शिथिल या दोषयुक्त होता है !
२. जन्म नक्षत्र से नक्षत्र पुरुष विचार :
जातक के जन्म नक्षत्र से प्रारम्भ करके १,१,३,१,१,४,३,५,१,४,३ नक्षत्रों को सारणी के अनुसार स्थापित कर लें ! जिन नक्षत्रों पर पाप प्रभाव, क्रूर दृष्टि, नीच-शत्रु ग्रह होगा उन्ही नक्षत्रों के अंगो पर चोट व अन्य निशान उस ग्रह की दशा अन्तर्दशा में मिलेंगे ! यह विचार महर्षि पराशर ने बताया है !
अंग - नक्षत्र
मुख - जन्म नक्षत्र
वाम नेत्र - १
माथा - ३
छाती (दायीं) - १
गला (दक्षिण भाग) - १
दायाँ हाथ - ४
दायाँ पैर - ३
छाती (बायीं) - ५
गला (वाम bhag) - १
बनया हाथ - ४
दायाँ पैर - ३
३. पाराशरीय मत :
पराशर ने प्रश्न विचार हेतु अलग नक्षत्र पुरुष का वर्णन किया है !
क्रम. नक्षत्र - शरीरांग
१. अश्विनी - सर
२. भरणी - माथा
३. कृतिका - भौंहें
४. रोहिणी - आँखें
५. मृगशिरा - नाक
६. आर्द्रा - कान
७. पुनर्वसु - गाल
८. पुष्य - होंठ
९. आश्लेषा - ठुड्डी
१०. मघा - गला
११. पूर्वा फाल्गुनी - कंधे
१२. उत्तरा फाल्गुनी- ह्रदय
१३. हस्त - बगलें
१४. चित्रा - छाती
१५. स्वाति - पेट
१६. विशाखा - नाभि
१७. अनुराधा - कमर
१८. ज्येष्ठा - जांघ
१९. मूल - नितम्ब
२०. पूर्वा षाढा - लिंग
२१. उत्तरा षाढा - अंडकोष
२२. श्रवण - पेडू
२३. धनिष्ठा - जंघा
२४. शतभिषा - घुटने
२५. पूर्वा भाद्रपद - पिंडली
२६. उत्तरा भाद्रपद - टखने
२७. रेवती - पैर
* ज्येष्ठा को जांघों के उपरी हिस्से अर्थात कमर के निचे के आधे भाग में व धनिष्ठा को शेष जांघें समझे !
नोट : -
रोरोगी, पलायित, विपत्ति ग्रस्त के विषय में व्यक्ति प्रश्न करे और प्रश्न करते समय पैर, कमर पिंडली, घुटना, नाभि, टखना, कान, माथा, आँखें, मुख, गला इनको छुए या प्रश्न समय प्रश्नगत व्यक्ति के जन्म नक्षत्र से विपत, वध, प्रत्यारी, वैनाशिक नक्षत्रों के अंगो को छुए या ये नक्षत्र प्रश्न समय विद्यमान हो तो प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति को अशुभ फल मिलेगा !
ஐ गण्डमूल / मूल नक्षत्र ஐ
इस श्रेणी में ६ नक्षत्र आते है !
१. रेवती, २. अश्विनी, ३. आश्लेषा, ४. मघा, ५. ज्येष्ठा, ६. मूल यह ६ नक्षत्र
मूल संज्ञक / गण्डमूल संज्ञक नक्षत्र होते है !
रेवती, आश्लेषा, ज्येष्ठा का स्वामी बुध है ! अश्विनी, मघा, मूल का स्वामी केतु है !
इन्हें २ श्रेणी में विभाजित किया गया है -बड़े मूल व छोटे मूल !
मूल, ज्येष्ठा व आश्लेषा बड़े मूल कहलाते है, अश्वनी, रेवती व मघा छोटे मूल कहलाते है ;
बड़े मूलो में जन्मे बच्चे के लिए २७ दिन के बाद जब चन्द्रमा उसी नक्षत्र में जाये तो शांति
करवानी चाहिए ऐसा पराशर का मत भी है, तब तक बच्चे के पिता को बच्चे का मुह नहीं
देखना चाहिए ! जबकि छोटे मूलो में जन्मे बच्चे की मूल शांति उस नक्षत्र स्वामी के दूसरे
नक्षत्र में करायी जा सकती है अर्थात १०वे या १९वे दिन में !यदि जातक के जन्म के समय
चद्रमा इन नक्षत्रों में स्थित हो तो मूल दोष होता है ; इसकी शांति नितांत आवश्यक होती है !
जन्म समय में यदि यह नक्षत्र पड़े तो दोष होता है !
दोष मानने का कारण यह है की नक्षत्र चक्र और राशी चक्र दोनों में इन नक्षत्रों पर
संधि होती है ( चित्र में यह बात स्पष्टता से देखि जा सकती है ) !
और संधि का समय हमेशा से विशेष होता है ! उदाहरण के लिए रात्रि से जब दिन
का प्रारम्भ होता है तो उस समय को हम ब्रम्हमुहूर्त कहते है ;
और ठीक इसी तरह जब दिन से रात्रि होती है तो उस समय को हम गदा बेला / गोधूली
कहते है !
इन समयों पर भगवान का ध्यान करने के लिए कहा जाता है - जिसका सीधा सा अर्थ
है की इन समय पर सावधानी अपेक्षित होती है !
संधि का स्थान जितना लाभप्रद होता है उतना ही हानि कारक भी होता है !
संधि का समय अधिकतर शुभ कार्यों के लिए अशुभ ही माना जाता है !
गण्डमूल में जन्म का फल :
विभिन्न चरणों में दोष विभिन्न लोगो को लगता है, साथ ही इसका फल हमेशा बुरा ही
हो ऐसा नहीं है !
अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के लिए कष्टकारी
द्वितीय पद में - आराम तथा सुख केलिए उत्तम
तृतीय पद में - उच्च पद
चतुर्थ पद में - राज सम्मान
आश्लेषा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - यदि शांति करायीं जाये तो शुभ
द्वितीय पद में - संपत्ति के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता को हानि
चतुर्थ पद में - पिता को हानि
मघा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - माता को हानि
द्वितीय पद में - पिता को हानि
तृतीय पद में - उत्तम
चतुर्थ पद में - संपत्ति व शिक्षा के लिए उत्तम
ज्येष्ठा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - बड़े भाई के लिए अशुभ
द्वितीय पद में - छोटे भाई के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता के लिए अशुभ
चतुर्थ पद में - स्वयं के लिए अशुभ
मूल नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के जीवन में परिवर्तन
द्वितीय पद में - माता के लिए अशुभ
तृतीय पद में - संपत्ति की हानि
चतुर्थ पद में - शांति कराई जाये तो शुभ फल
रेवती नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - राज सम्मान
द्वितीय पद में - मंत्री पद
तृतीय पद में - धन सुख
चतुर्थ पद में - स्वयं को कष्ट
अभुक्तमूल
ज्येष्ठा की अंतिम एक घडी तथा मूल की प्रथम एक घटी अत्यंत हानिकर हैं !
इन्हें ही अभुक्तमूल कहा जाता है, शास्त्रों के अनुसार पिता को बच्चे से ८ वर्ष
तक दूर रहना चाहिए ! यदि यह संभव ना हो तो कम से कम ६ माह तो अलग
ही रहना चाहिए ! मूल शांति के बाद ही बच्चे से मिलना चाहिए !
अभुक्तमूल पिता के लिए अत्यंत हानिकारक होता है !
यह तो था नक्षत्र गंडांत इसी आधार पर लग्न और तिथि गंडांत भी होता है -
लग्न गंडांत :- मीन-मेष, कर्क-सिंह, वृश्चिक-धनु लग्न की आधी-२ प्रारंभ व अंत की
घडी कुल २४ मिनट लग्न गंडांत होता है !
तिथि गंडांत :- ५,१०,१५ तिथियों के अंत व ६,११,१ तिथियों के प्रारम्भ की २-२ घड़ियाँ
तिथि गंडांत है रहता है !
**जन्म समय में यदि तीनों गंडांत एक साथ पड़ रहे है तो यह महा-अशुभ होता है ;
नक्षत्र गंडांत अधिक अशुभ, लग्न गंडांत मध्यम अशुभ व तिथि गंडांत सामान्य अशुभ
होता है, जितने ज्यादा गंडांत दोष लगेंगे किसी कुंडली में उतना ही अधिक अशुभ
फल करक होंगे !
गण्ड का अपवाद :
निम्नलिखित विशेष परिस्थितियों में गण्ड या गण्डांत का प्रभाव काफी हद तक कम हो जाता है (लेकिन फिर भी शांति अनिवार्य है) !
१.गर्ग के मतानुसार
रविवार को अश्विनी में जन्म हो या सूर्यवार बुधवार को ज्येष्ठ, रेवती, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति हो तो नक्षत्र जन्म दोष कम होता है !
२. बादरायण के मतानुसार गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा यदि लग्नेश से कोई सम्बन्ध, विशेषतया दृष्टि सम्बन्ध न बनाता हो तो इस दोष में कमी होती है !
३. वशिष्ठ जी के अनुसार दिन में मूल का दूसरा चरण हो और रात में मूल का पहला चरण हो तो माता-पिता के लिए कष्ट होता है इसलिए शांति अवश्य कराये!
४. ब्रम्हा जी का वाक्य है की चन्द्रमा यदि बलवान हो तो नक्षत्र गण्डांत व गुरु बलि हो तो लग्न गण्डांत का दोष काफी कम लगता है !
५. वशिष्ठ के मतानुसार अभिजीत मुहूर्त में जन्म होने पर गण्डांतादी दोष प्रायः नष्ट हो जाते है ! लेकिन यह विचार सिर्फ विवाह लग्न में ही देखें, जन्म में नहीं !
पंचक नक्षत्र
धनिष्ठा का उत्तरार्ध (तृतीय व चतुर्थ चरण ), शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती आर्थात
कुल १८ चरण ; इन ५ नक्षत्रों में जब गोचर में चन्द्रमा आता है तब उस अवधि को पंचक कहा जाता है !
इस समय में दक्षिण दिशा की यात्रा, शवदाह, घर पर छत डालना या घर को ढकना , चारपाई बनवाना,
ईंधन एकत्र करना, खम्भा बनवाना वर्जित है !
गर्ग मुनि के मतानुसार इस समय में जो भी शुभ या अशुभ कम किये जाते है वह ५ गुना फल देते है !
इसी कारण से शवदाह के समय शव के साथ चार और पुतले दाह किये जाते है !
चन्द्रमा एक नक्षत्र एक दिन में पर करता है इसलिए पंचक भी साढ़े चार दिन का होता है !
एक माह में एक बार पंचक लग ही जाता है परन्तु कभी कभी अंग्रेजी माह में दो बार भी हो जाता है !
→मांगलिक दोष ←웃
प्राचीन ग्रंथों जैसे वृहत पराशर होरा शास्त्र व भाव दीपिका आदि के अनुसार कुंडली में
१, ४, ७, ८. १२ में मंगल के आने होने पर मांगलिक दोष होता है !
यह नियम उत्तर भारत में अधिक माना जाता है !
मानसागरी, अगस्त्य संहिता, जातक पारिजात, के अनुसार १, २, ४, ७, ८, १२ वें भाव में
मंगल के होने पर यह दोष होता है !
यह नियम दक्षिण भारत में माना जाता है !
• » मांगलिक दोष भंग योग « •
==>अगर मंगल लग्न में मेष या मकर राशी,
१२ वें में धनु राशी, ४ वें में वृश्चिक राशी,
७ वें में वृषभ या मकर राशी, और ८ वें में कुम्भ
या मीन राशी हो तो दोष भंग हो जाता है !
==> ४, ७ और १२ में मेष या कर्क का मंगल हो!
==> यदि गुण २७ से ज्यादा मिले तो भी दोष नहीं लगता !
==> १२ वें भाव में मंगल बुध या शुक्र की राशी में हो !
==> यदि मिलान में एक की कुंडली में जिस भाव में मंगल है ,
दूसरे की कुंडली में उसी भाव में राहू या शनि हो !
==> यदि बली गुरु और शुक्र १ या ७ वें भाव में हो !
==> यदि मंगल स्वराशी, उच्च, नीच, वक्री या अस्त हो !
==> यदि मंगल-गुरु, मंगल-राहू, मंगल-चन्द्र युति कुंडली में हो !
कुंडली में मंगल को मजबूत करने के लिए हनुमान चालीसा का नियमित पाठ लाभप्रद होता है !
संज्ञा या स्वाभाव के आधार पर नक्षत्रो को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है!
१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र :- ४ रोहिणी, १२ उत्तरा फाल्गुनी, २१ उत्तरा षाढा, २६ उत्तरा भाद्रपद !
इन नक्षत्रों में स्थिर कार्य करना चाहिए अर्थात वह कार्य जिनमे स्थिरता की जरुरत हो!
जैसे- ग्रह प्रवेश,बीज बोना, व्यपारारम्भ, ग्रहशांति आदि के कार्य, बाग़- बगीचा बनवाना,
धर्मशाला बनवाना, मंदिर बनवाना, गाना बजाना, कपडा पहनना, प्रेम करना,अलंकार
धारण करना,पदग्रहण करना आदि !
नोट- यदि कोई व्यक्ति स्थिर नक्षत्रों के कार्य चर नक्षत्रों या किन्ही और नक्षत्रों में करता है तो उसे हानी ही होती है!
उदाहरण के लिए आप ने चर में नए वस्त्र ख़रीदे या कोई मकान बनवाया तो बार बार वस्त्रों को और मकान को बदलना पड़ेगा!
ऐसा नहीं है की मकान फिर से बनवाना पड़ेगा, हाँ यह भी हो सकता है की मकान में ही फेर बदल करते रहना पड़े !
क्योंकि चर का स्वाभाव ही चलायमान है!
अतः वह कार्य जिनमे मन को स्थिर रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
२. चल (चर) नक्षत्र:- ७ पुनर्वसु, १५ स्वाति, २२ श्रवण, २३ धनिष्ठा, २४ शतभिषा!
इनमे सवारी करना, यात्रा, मंत्र सिद्धि, हल चलाना, वाहनों को खरीदना, आदि शुभ है!
वह कार्य जिनमे मन को चलायमान रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र:-२ भरणी, १० मघा, ११ पूर्वा फाल्गुनी, २० पूर्वा षाढा, २५ पूर्वा भाद्रपद !
इनमे उग्र कार्य करना अच्छा होता है!
जैसे- तांत्रिक प्रयोग, जहर देना, आग लगाना, मुकद्दमा, दायर करना, शत्रु पर आक्रमण, संधि कार्य, चतुराई चालाकी के काम आदि !
४.साधारण (मिश्र) नक्षत्र :- ३ कृतिका, १६ विशाखा !
इनमे सामान्य कार्य, अग्नि कार्य और उग्र नक्षत्र के कार्य भी किये जा सकते है !
५.क्षिप्र (लघु) नक्षत्र:- १ अस्वनी, ८ पुष्य, १३ हस्त, २८ अभिजित !
इनमे व्यपारारम्भ, स्त्री-पुरष से मैत्री, साँझा, ज्ञान प्राप्ति, खेलना,औषधि तैयार करना,
चित्रकारी, शिल्पकारी,आदि कार्य करना लाभकारी होता है !
इसमें चर नक्षत्रों के काम भी किये जा सकते है!
६.मृदु (मैत्र ) नक्षत्र :- ५ मृगशिरा , १४ चित्रा, १७ अनुराधा, २७ रेवती !
इनमे सभी मित्रता पूर्ण और कोमल कार्य करने चाहिए !
जैसे-गीत गाना, नाटक करना, खेल-कूद, चित्र बनना आदि !
७. तीक्ष्ण (दारुण ) नक्षत्र :- ६ आदर, ९ आश्लेषा, १८ ज्येष्ठा, १९ मूल !
इनमे उग्र कार्य, फूट डालना, प्रहार करना, भूत-प्रेत बाधा निवारण, जादू टोना आदि
करना ठीक होता है !
ஐ जन्मानुसार विशेष नक्षत्रयोग ஐ
विषकन्या योग :
कुछ नक्षत्र ऐसे होते है जो विशेष तिथि व वार पर पड़े तो उस समय पर जन्मी कन्या विषकन्या कहलाती है !
१. आश्लेषा या शतभिषा + रविवार + द्वितीया !
२. कृतिका, विशाखा या शतभिषा + रविवार + द्वादशी !
३. आश्लेषा, विशाखा या शतभिषा + मंगलवार + सप्तमी !
४. आश्लेषा + शनिवार + द्वितीया !
५. शतभिषा + मंगलवार + द्वादशी !
६. कृतिका + शनिवार + सप्तमी या द्वादशी !
इस योग में पैदा हुई बालिका के शुभ जीवन के लिए शांति करनी चाहिए ! ऐसी बालिका का विवाह ऐसे बालक से किया जाना चाहिए जिसकी जन्म कुंडली में दीर्घायु योग के साथ साथ मंगल दोष अधिक हो ! इससे इस दोष का परिहार हो जाता है !
सार्पशीर्ष योग :
सूर्य व चन्द्रमा जब एक ही नक्षत्र में रहे तब अगर अनुराधा नक्षत्र हो, यह स्थिति केवल मार्गशीर्ष मास में ही संभव है, तब उस अनुराधा नक्षत्र का तीसरा व चौथा चरण सार्पशीर्ष कहलाता है ! यह जन्म के लिए जितना अशुभ है उतना ही मुहूर्त शास्त्र में किसी काम के लिए भी अशुभ माना जाता है !
दोषकारक अन्य जन्म नक्षत्र :
चित्र के प्रथम, द्वितीय चरण में, पुष्य के प्रथम द्वितीय चरण में , पूर्वाषाढ़ा के तृतीय चरण में व उत्तराषाढ़ा के प्रथम चरण में माता-पिता, भाई व स्वयं के लिए हानिप्रद होता है ! लेकिन नक्षत्रौं का फल हमेशा नहीं रहता अपितु १ वर्ष तक ही दोष दिखाई देता है !
ज्वालामुखी योग :
तिथि व नक्षत्रों के निम्न संयोगो से इस योग का निर्माण होता है !
१. प्रतिपदा को मूल !
२. पंचमी को भरणी !
३. षष्ठी को कृतिका !
४. नवमी को रोहिणी !
५. दशमी को आश्लेषा !
इस योग में पैदा हुए बच्चे को मृत्यु का प्रबल भय होता है ! यह योग यात्रा व सभी नए कार्यों के आरम्भ हेतु भी वर्जित है ! इसमें शुरू किये गए काम में असफलता ही मिलती है !
ஐ नक्षत्रों का शरीर पर स्थान ஐ
नक्षत्रों को शरीर पर विभाजित करने का वर्गीकरण उस वक़्त बहुत उपयोगी होता है जब किसी जातक की कुंडली का सही पता नहीं होता है यह देखने हो की प्रस्तुत कुंडली उसी जातक की है या नहीं ;अलग अलग ग्रह विभिन्न नक्षत्रों पर अपना एक अलग प्रकार का चिन्ह अथवा निशान देते है ! इतना ही नहीं चिकित्सा ज्योतिष में नक्षत्र वर्गीकरण : स्वाभाव के आधार पर -
संज्ञा या स्वाभाव के आधार पर नक्षत्रो को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है!
१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र :- ४ रोहिणी, १२ उत्तरा फाल्गुनी, २१ उत्तरा षाढा, २६ उत्तरा भाद्रपद !
इन नक्षत्रों में स्थिर कार्य करना चाहिए अर्थात वह कार्य जिनमे स्थिरता की जरुरत हो!
जैसे- ग्रह प्रवेश,बीज बोना, व्यपारारम्भ, ग्रहशांति आदि के कार्य, बाग़- बगीचा बनवाना,
धर्मशाला बनवाना, मंदिर बनवाना, गाना बजाना, कपडा पहनना, प्रेम करना,अलंकार
धारण करना,पदग्रहण करना आदि !
नोट- यदि कोई व्यक्ति स्थिर नक्षत्रों के कार्य चर नक्षत्रों या किन्ही और नक्षत्रों में करता है तो उसे हानी ही होती है!
उदाहरण के लिए आप ने चर में नए वस्त्र ख़रीदे या कोई मकान बनवाया तो बार बार वस्त्रों को और मकान को बदलना पड़ेगा!
ऐसा नहीं है की मकान फिर से बनवाना पड़ेगा, हाँ यह भी हो सकता है की मकान में ही फेर बदल करते रहना पड़े !
क्योंकि चर का स्वाभाव ही चलायमान है!
अतः वह कार्य जिनमे मन को स्थिर रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
२. चल (चर) नक्षत्र:- ७ पुनर्वसु, १५ स्वाति, २२ श्रवण, २३ धनिष्ठा, २४ शतभिषा!
इनमे सवारी करना, यात्रा, मंत्र सिद्धि, हल चलाना, वाहनों को खरीदना, आदि शुभ है!
वह कार्य जिनमे मन को चलायमान रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र:-२ भरणी, १० मघा, ११ पूर्वा फाल्गुनी, २० पूर्वा षाढा, २५ पूर्वा भाद्रपद !
इनमे उग्र कार्य करना अच्छा होता है!
जैसे- तांत्रिक प्रयोग, जहर देना, आग लगाना, मुकद्दमा, दायर करना, शत्रु पर आक्रमण, संधि कार्य, चतुराई चालाकी के काम आदि !
४.साधारण (मिश्र) नक्षत्र :- ३ कृतिका, १६ विशाखा !
इनमे सामान्य कार्य, अग्नि कार्य और उग्र नक्षत्र के कार्य भी किये जा सकते है !
५.क्षिप्र (लघु) नक्षत्र:- १ अस्वनी, ८ पुष्य, १३ हस्त, २८ अभिजित !
इनमे व्यपारारम्भ, स्त्री-पुरष से मैत्री, साँझा, ज्ञान प्राप्ति, खेलना,औषधि तैयार करना,
चित्रकारी, शिल्पकारी,आदि कार्य करना लाभकारी होता है !
इसमें चर नक्षत्रों के काम भी किये जा सकते है!
६.मृदु (मैत्र ) नक्षत्र :- ५ मृगशिरा , १४ चित्रा, १७ अनुराधा, २७ रेवती !
इनमे सभी मित्रता पूर्ण और कोमल कार्य करने चाहिए !
जैसे-गीत गाना, नाटक करना, खेल-कूद, चित्र बनना आदि !
७. तीक्ष्ण (दारुण ) नक्षत्र :- ६ आदर, ९ आश्लेषा, १८ ज्येष्ठा, १९ मूल !
इनमे उग्र कार्य, फूट डालना, प्रहार करना, भूत-प्रेत बाधा निवारण, जादू टोना आदि
करना ठीक होता है !
ஐ जन्मानुसार विशेष नक्षत्रयोग ஐ
विषकन्या योग :
कुछ नक्षत्र ऐसे होते है जो विशेष तिथि व वार पर पड़े तो उस समय पर जन्मी कन्या विषकन्या कहलाती है !
१. आश्लेषा या शतभिषा + रविवार + द्वितीया !
२. कृतिका, विशाखा या शतभिषा + रविवार + द्वादशी !
३. आश्लेषा, विशाखा या शतभिषा + मंगलवार + सप्तमी !
४. आश्लेषा + शनिवार + द्वितीया !
५. शतभिषा + मंगलवार + द्वादशी !
६. कृतिका + शनिवार + सप्तमी या द्वादशी !
इस योग में पैदा हुई बालिका के शुभ जीवन के लिए शांति करनी चाहिए ! ऐसी बालिका का विवाह ऐसे बालक से किया जाना चाहिए जिसकी जन्म कुंडली में दीर्घायु योग के साथ साथ मंगल दोष अधिक हो ! इससे इस दोष का परिहार हो जाता है !
सार्पशीर्ष योग :
सूर्य व चन्द्रमा जब एक ही नक्षत्र में रहे तब अगर अनुराधा नक्षत्र हो, यह स्थिति केवल मार्गशीर्ष मास में ही संभव है, तब उस अनुराधा नक्षत्र का तीसरा व चौथा चरण सार्पशीर्ष कहलाता है ! यह जन्म के लिए जितना अशुभ है उतना ही मुहूर्त शास्त्र में किसी काम के लिए भी अशुभ माना जाता है !
दोषकारक अन्य जन्म नक्षत्र :
चित्र के प्रथम, द्वितीय चरण में, पुष्य के प्रथम द्वितीय चरण में , पूर्वाषाढ़ा के तृतीय चरण में व उत्तराषाढ़ा के प्रथम चरण में माता-पिता, भाई व स्वयं के लिए हानिप्रद होता है ! लेकिन नक्षत्रौं का फल हमेशा नहीं रहता अपितु १ वर्ष तक ही दोष दिखाई देता है !
ज्वालामुखी योग :
तिथि व नक्षत्रों के निम्न संयोगो से इस योग का निर्माण होता है !
१. प्रतिपदा को मूल !
२. पंचमी को भरणी !
३. षष्ठी को कृतिका !
४. नवमी को रोहिणी !
५. दशमी को आश्लेषा !
इस योग में पैदा हुए बच्चे को मृत्यु का प्रबल भय होता है ! यह योग यात्रा व सभी नए कार्यों के आरम्भ हेतु भी वर्जित है ! इसमें शुरू किये गए काम में असफलता ही मिलती है !
ஐ नक्षत्रों का शरीर पर स्थान ஐ
नक्षत्रों को शरीर पर विभाजित करने का वर्गीकरण उस वक़्त बहुत उपयोगी होता है जब किसी जातक की कुंडली का सही पता नहीं होता है यह देखने हो की प्रस्तुत कुंडली उसी जातक की है या नहीं ;अलग अलग ग्रह विभिन्न नक्षत्रों पर अपना एक अलग प्रकार का चिन्ह अथवा निशान देते है ! इतना ही नहीं चिकित्सा ज्योतिष में नक्षत्र वर्गीकरण : स्वाभाव के आधार पर -
संज्ञा या स्वाभाव के आधार पर नक्षत्रो को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है!
१. ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र :- ४ रोहिणी, १२ उत्तरा फाल्गुनी, २१ उत्तरा षाढा, २६ उत्तरा भाद्रपद !
इन नक्षत्रों में स्थिर कार्य करना चाहिए अर्थात वह कार्य जिनमे स्थिरता की जरुरत हो!
जैसे- ग्रह प्रवेश,बीज बोना, व्यपारारम्भ, ग्रहशांति आदि के कार्य, बाग़- बगीचा बनवाना,
धर्मशाला बनवाना, मंदिर बनवाना, गाना बजाना, कपडा पहनना, प्रेम करना,अलंकार
धारण करना,पदग्रहण करना आदि !
नोट- यदि कोई व्यक्ति स्थिर नक्षत्रों के कार्य चर नक्षत्रों या किन्ही और नक्षत्रों में करता है तो उसे हानी ही होती है!
उदाहरण के लिए आप ने चर में नए वस्त्र ख़रीदे या कोई मकान बनवाया तो बार बार वस्त्रों को और मकान को बदलना पड़ेगा!
ऐसा नहीं है की मकान फिर से बनवाना पड़ेगा, हाँ यह भी हो सकता है की मकान में ही फेर बदल करते रहना पड़े !
क्योंकि चर का स्वाभाव ही चलायमान है!
अतः वह कार्य जिनमे मन को स्थिर रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
२. चल (चर) नक्षत्र:- ७ पुनर्वसु, १५ स्वाति, २२ श्रवण, २३ धनिष्ठा, २४ शतभिषा!
इनमे सवारी करना, यात्रा, मंत्र सिद्धि, हल चलाना, वाहनों को खरीदना, आदि शुभ है!
वह कार्य जिनमे मन को चलायमान रखना हो इन्ही नक्षत्रों में करने चाहिए !
३. उग्र (क्रूर) नक्षत्र:-२ भरणी, १० मघा, ११ पूर्वा फाल्गुनी, २० पूर्वा षाढा, २५ पूर्वा भाद्रपद !
इनमे उग्र कार्य करना अच्छा होता है!
जैसे- तांत्रिक प्रयोग, जहर देना, आग लगाना, मुकद्दमा, दायर करना, शत्रु पर आक्रमण, संधि कार्य, चतुराई चालाकी के काम आदि !
४.साधारण (मिश्र) नक्षत्र :- ३ कृतिका, १६ विशाखा !
इनमे सामान्य कार्य, अग्नि कार्य और उग्र नक्षत्र के कार्य भी किये जा सकते है !
५.क्षिप्र (लघु) नक्षत्र:- १ अस्वनी, ८ पुष्य, १३ हस्त, २८ अभिजित !
इनमे व्यपारारम्भ, स्त्री-पुरष से मैत्री, साँझा, ज्ञान प्राप्ति, खेलना,औषधि तैयार करना,
चित्रकारी, शिल्पकारी,आदि कार्य करना लाभकारी होता है !
इसमें चर नक्षत्रों के काम भी किये जा सकते है!
६.मृदु (मैत्र ) नक्षत्र :- ५ मृगशिरा , १४ चित्रा, १७ अनुराधा, २७ रेवती !
इनमे सभी मित्रता पूर्ण और कोमल कार्य करने चाहिए !
जैसे-गीत गाना, नाटक करना, खेल-कूद, चित्र बनना आदि !
७. तीक्ष्ण (दारुण ) नक्षत्र :- ६ आदर, ९ आश्लेषा, १८ ज्येष्ठा, १९ मूल !
इनमे उग्र कार्य, फूट डालना, प्रहार करना, भूत-प्रेत बाधा निवारण, जादू टोना आदि
करना ठीक होता है !
ஐ जन्मानुसार विशेष नक्षत्रयोग ஐ
विषकन्या योग :
कुछ नक्षत्र ऐसे होते है जो विशेष तिथि व वार पर पड़े तो उस समय पर जन्मी कन्या विषकन्या कहलाती है !
१. आश्लेषा या शतभिषा + रविवार + द्वितीया !
२. कृतिका, विशाखा या शतभिषा + रविवार + द्वादशी !
३. आश्लेषा, विशाखा या शतभिषा + मंगलवार + सप्तमी !
४. आश्लेषा + शनिवार + द्वितीया !
५. शतभिषा + मंगलवार + द्वादशी !
६. कृतिका + शनिवार + सप्तमी या द्वादशी !
इस योग में पैदा हुई बालिका के शुभ जीवन के लिए शांति करनी चाहिए ! ऐसी बालिका का विवाह ऐसे बालक से किया जाना चाहिए जिसकी जन्म कुंडली में दीर्घायु योग के साथ साथ मंगल दोष अधिक हो ! इससे इस दोष का परिहार हो जाता है !
सार्पशीर्ष योग :
सूर्य व चन्द्रमा जब एक ही नक्षत्र में रहे तब अगर अनुराधा नक्षत्र हो, यह स्थिति केवल मार्गशीर्ष मास में ही संभव है, तब उस अनुराधा नक्षत्र का तीसरा व चौथा चरण सार्पशीर्ष कहलाता है ! यह जन्म के लिए जितना अशुभ है उतना ही मुहूर्त शास्त्र में किसी काम के लिए भी अशुभ माना जाता है !
दोषकारक अन्य जन्म नक्षत्र :
चित्र के प्रथम, द्वितीय चरण में, पुष्य के प्रथम द्वितीय चरण में , पूर्वाषाढ़ा के तृतीय चरण में व उत्तराषाढ़ा के प्रथम चरण में माता-पिता, भाई व स्वयं के लिए हानिप्रद होता है ! लेकिन नक्षत्रौं का फल हमेशा नहीं रहता अपितु १ वर्ष तक ही दोष दिखाई देता है !
ज्वालामुखी योग :
तिथि व नक्षत्रों के निम्न संयोगो से इस योग का निर्माण होता है !
१. प्रतिपदा को मूल !
२. पंचमी को भरणी !
३. षष्ठी को कृतिका !
४. नवमी को रोहिणी !
५. दशमी को आश्लेषा !
इस योग में पैदा हुए बच्चे को मृत्यु का प्रबल भय होता है ! यह योग यात्रा व सभी नए कार्यों के आरम्भ हेतु भी वर्जित है ! इसमें शुरू किये गए काम में असफलता ही मिलती है !
ஐ नक्षत्रों का शरीर पर स्थान ஐ
नक्षत्रों को शरीर पर विभाजित करने का वर्गीकरण उस वक़्त बहुत उपयोगी होता है जब किसी जातक की कुंडली का सही पता नहीं होता है यह देखने हो की प्रस्तुत कुंडली उसी जातक की है या नहीं ;अलग अलग ग्रह विभिन्न नक्षत्रों पर अपना एक अलग प्रकार का चिन्ह अथवा निशान देते है ! इतना ही नहीं चिकित्सा ज्योतिष में भी पीड़ित नक्षत्रों के द्वारा यह ज्ञात किया जाता है की जातक को किस स्थान पर रोग की सम्भावना ज्यादा है और कहा बिलकुल नहीं है ! यह हमेशा से शोध का विषय रहा है !
नक्षत्रों को शरीरांगो पर विभाजित करने में विद्वानों में एक से अधिक मत रहे है !
१.शास्त्रीय मत से नक्षत्र पुरुष का विचार :
शरीर के अंगो पर सभी नक्षत्रों का कोई क्रम नहीं है !
"वामनपुराणानुसार " इनका विभाजन निम्नलिखित है !
क्रम. नक्षत्र - शरीरांग
१. अश्विनी - दोनों घुटने
२. भरणी - सिर
३. कृतिका - कटिप्रदेश
४. रोहिणी - दोनों टांगे
५. मृगशिरा - दोनों नेत्र
६. आर्द्रा - बाल
७. पुनर्वसु - अंगुलियाँ
८. पुष्य - मुख
९. आश्लेषा - नख
१०. मघा - नाक
११. पूर्वा फाल्गुनी - गुप्तांग
१२. उत्तरा फाल्गुनी- गुप्तांग
१३. हस्त - दोनों हाथ
१४. चित्रा - मस्तक
१५. स्वाति - दांत
१६. विशाखा - दोनों भुजाएं
१७. अनुराधा - ह्रदय, वक्षस्थल
१८. ज्येष्ठा - जिव्हा
१९. मूल - दोनों पैर
२०. पूर्वा षाढा - दोनों जांघें
२१. उत्तरा षाढा - दोनों जांघें
२२. श्रवण - दोनों कान
२३. धनिष्ठा - पीठ
२४. शतभिषा - ठोड़ी के दोनों पार्श्व
२५. पूर्वा भाद्रपद - बगल
२६. उत्तरा भाद्रपद - बगल
२७. रेवती - दोनों कांख
नोट : -
i. शरीर में निशान और चोट का निश्चय करने में इसका उपयोग होता है ! क्रूर का बुरे ग्रह कुंडली में जिस नक्षत्र में गये हो उसी अंग पर घाव या निशान पैदा कर देते है !
ii. सूर्य चन्द्रमा के नक्षत्रानुसार उस अंग में चिन्ह आदि जन्मजात होता है या बना देता है !
iii. दशा-अन्तर्दशा में भी लग्ने वाली चोट का निर्धारण इसी से किया जाता है !
iv. जो नक्षत्र पापयुक्त हो, निर्बल ग्रह से युक्त हो वही अंग पीड़ित, शिथिल या दोषयुक्त होता है !
२. जन्म नक्षत्र से नक्षत्र पुरुष विचार :
जातक के जन्म नक्षत्र से प्रारम्भ करके १,१,३,१,१,४,३,५,१,४,३ नक्षत्रों को सारणी के अनुसार स्थापित कर लें ! जिन नक्षत्रों पर पाप प्रभाव, क्रूर दृष्टि, नीच-शत्रु ग्रह होगा उन्ही नक्षत्रों के अंगो पर चोट व अन्य निशान उस ग्रह की दशा अन्तर्दशा में मिलेंगे ! यह विचार महर्षि पराशर ने बताया है !
अंग - नक्षत्र
मुख - जन्म नक्षत्र
वाम नेत्र - १
माथा - ३
छाती (दायीं) - १
गला (दक्षिण भाग) - १
दायाँ हाथ - ४
दायाँ पैर - ३
छाती (बायीं) - ५
गला (वाम bhag) - १
बनया हाथ - ४
दायाँ पैर - ३
३. पाराशरीय मत :
पराशर ने प्रश्न विचार हेतु अलग नक्षत्र पुरुष का वर्णन किया है !
क्रम. नक्षत्र - शरीरांग
१. अश्विनी - सर
२. भरणी - माथा
३. कृतिका - भौंहें
४. रोहिणी - आँखें
५. मृगशिरा - नाक
६. आर्द्रा - कान
७. पुनर्वसु - गाल
८. पुष्य - होंठ
९. आश्लेषा - ठुड्डी
१०. मघा - गला
११. पूर्वा फाल्गुनी - कंधे
१२. उत्तरा फाल्गुनी- ह्रदय
१३. हस्त - बगलें
१४. चित्रा - छाती
१५. स्वाति - पेट
१६. विशाखा - नाभि
१७. अनुराधा - कमर
१८. ज्येष्ठा - जांघ
१९. मूल - नितम्ब
२०. पूर्वा षाढा - लिंग
२१. उत्तरा षाढा - अंडकोष
२२. श्रवण - पेडू
२३. धनिष्ठा - जंघा
२४. शतभिषा - घुटने
२५. पूर्वा भाद्रपद - पिंडली
२६. उत्तरा भाद्रपद - टखने
२७. रेवती - पैर
* ज्येष्ठा को जांघों के उपरी हिस्से अर्थात कमर के निचे के आधे भाग में व धनिष्ठा को शेष जांघें समझे !
नोट : -
रोरोगी, पलायित, विपत्ति ग्रस्त के विषय में व्यक्ति प्रश्न करे और प्रश्न करते समय पैर, कमर पिंडली, घुटना, नाभि, टखना, कान, माथा, आँखें, मुख, गला इनको छुए या प्रश्न समय प्रश्नगत व्यक्ति के जन्म नक्षत्र से विपत, वध, प्रत्यारी, वैनाशिक नक्षत्रों के अंगो को छुए या ये नक्षत्र प्रश्न समय विद्यमान हो तो प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति को अशुभ फल मिलेगा !
ஐ गण्डमूल / मूल नक्षत्र ஐ
इस श्रेणी में ६ नक्षत्र आते है !
१. रेवती, २. अश्विनी, ३. आश्लेषा, ४. मघा, ५. ज्येष्ठा, ६. मूल यह ६ नक्षत्र
मूल संज्ञक / गण्डमूल संज्ञक नक्षत्र होते है !
रेवती, आश्लेषा, ज्येष्ठा का स्वामी बुध है ! अश्विनी, मघा, मूल का स्वामी केतु है !
इन्हें २ श्रेणी में विभाजित किया गया है -बड़े मूल व छोटे मूल !
मूल, ज्येष्ठा व आश्लेषा बड़े मूल कहलाते है, अश्वनी, रेवती व मघा छोटे मूल कहलाते है ;
बड़े मूलो में जन्मे बच्चे के लिए २७ दिन के बाद जब चन्द्रमा उसी नक्षत्र में जाये तो शांति
करवानी चाहिए ऐसा पराशर का मत भी है, तब तक बच्चे के पिता को बच्चे का मुह नहीं
देखना चाहिए ! जबकि छोटे मूलो में जन्मे बच्चे की मूल शांति उस नक्षत्र स्वामी के दूसरे
नक्षत्र में करायी जा सकती है अर्थात १०वे या १९वे दिन में !यदि जातक के जन्म के समय
चद्रमा इन नक्षत्रों में स्थित हो तो मूल दोष होता है ; इसकी शांति नितांत आवश्यक होती है !
जन्म समय में यदि यह नक्षत्र पड़े तो दोष होता है !
दोष मानने का कारण यह है की नक्षत्र चक्र और राशी चक्र दोनों में इन नक्षत्रों पर
संधि होती है ( चित्र में यह बात स्पष्टता से देखि जा सकती है ) !
और संधि का समय हमेशा से विशेष होता है ! उदाहरण के लिए रात्रि से जब दिन
का प्रारम्भ होता है तो उस समय को हम ब्रम्हमुहूर्त कहते है ;
और ठीक इसी तरह जब दिन से रात्रि होती है तो उस समय को हम गदा बेला / गोधूली
कहते है !
इन समयों पर भगवान का ध्यान करने के लिए कहा जाता है - जिसका सीधा सा अर्थ
है की इन समय पर सावधानी अपेक्षित होती है !
संधि का स्थान जितना लाभप्रद होता है उतना ही हानि कारक भी होता है !
संधि का समय अधिकतर शुभ कार्यों के लिए अशुभ ही माना जाता है !
गण्डमूल में जन्म का फल :
विभिन्न चरणों में दोष विभिन्न लोगो को लगता है, साथ ही इसका फल हमेशा बुरा ही
हो ऐसा नहीं है !
अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के लिए कष्टकारी
द्वितीय पद में - आराम तथा सुख केलिए उत्तम
तृतीय पद में - उच्च पद
चतुर्थ पद में - राज सम्मान
आश्लेषा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - यदि शांति करायीं जाये तो शुभ
द्वितीय पद में - संपत्ति के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता को हानि
चतुर्थ पद में - पिता को हानि
मघा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - माता को हानि
द्वितीय पद में - पिता को हानि
तृतीय पद में - उत्तम
चतुर्थ पद में - संपत्ति व शिक्षा के लिए उत्तम
ज्येष्ठा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - बड़े भाई के लिए अशुभ
द्वितीय पद में - छोटे भाई के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता के लिए अशुभ
चतुर्थ पद में - स्वयं के लिए अशुभ
मूल नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के जीवन में परिवर्तन
द्वितीय पद में - माता के लिए अशुभ
तृतीय पद में - संपत्ति की हानि
चतुर्थ पद में - शांति कराई जाये तो शुभ फल
रेवती नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - राज सम्मान
द्वितीय पद में - मंत्री पद
तृतीय पद में - धन सुख
चतुर्थ पद में - स्वयं को कष्ट
अभुक्तमूल
ज्येष्ठा की अंतिम एक घडी तथा मूल की प्रथम एक घटी अत्यंत हानिकर हैं !
इन्हें ही अभुक्तमूल कहा जाता है, शास्त्रों के अनुसार पिता को बच्चे से ८ वर्ष
तक दूर रहना चाहिए ! यदि यह संभव ना हो तो कम से कम ६ माह तो अलग
ही रहना चाहिए ! मूल शांति के बाद ही बच्चे से मिलना चाहिए !
अभुक्तमूल पिता के लिए अत्यंत हानिकारक होता है !
यह तो था नक्षत्र गंडांत इसी आधार पर लग्न और तिथि गंडांत भी होता है -
लग्न गंडांत :- मीन-मेष, कर्क-सिंह, वृश्चिक-धनु लग्न की आधी-२ प्रारंभ व अंत की
घडी कुल २४ मिनट लग्न गंडांत होता है !
तिथि गंडांत :- ५,१०,१५ तिथियों के अंत व ६,११,१ तिथियों के प्रारम्भ की २-२ घड़ियाँ
तिथि गंडांत है रहता है !
**जन्म समय में यदि तीनों गंडांत एक साथ पड़ रहे है तो यह महा-अशुभ होता है ;
नक्षत्र गंडांत अधिक अशुभ, लग्न गंडांत मध्यम अशुभ व तिथि गंडांत सामान्य अशुभ
होता है, जितने ज्यादा गंडांत दोष लगेंगे किसी कुंडली में उतना ही अधिक अशुभ
फल करक होंगे !
गण्ड का अपवाद :
निम्नलिखित विशेष परिस्थितियों में गण्ड या गण्डांत का प्रभाव काफी हद तक कम हो जाता है (लेकिन फिर भी शांति अनिवार्य है) !
१.गर्ग के मतानुसार
रविवार को अश्विनी में जन्म हो या सूर्यवार बुधवार को ज्येष्ठ, रेवती, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति हो तो नक्षत्र जन्म दोष कम होता है !
२. बादरायण के मतानुसार गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा यदि लग्नेश से कोई सम्बन्ध, विशेषतया दृष्टि सम्बन्ध न बनाता हो तो इस दोष में कमी होती है !
३. वशिष्ठ जी के अनुसार दिन में मूल का दूसरा चरण हो और रात में मूल का पहला चरण हो तो माता-पिता के लिए कष्ट होता है इसलिए शांति अवश्य कराये!
४. ब्रम्हा जी का वाक्य है की चन्द्रमा यदि बलवान हो तो नक्षत्र गण्डांत व गुरु बलि हो तो लग्न गण्डांत का दोष काफी कम लगता है !
५. वशिष्ठ के मतानुसार अभिजीत मुहूर्त में जन्म होने पर गण्डांतादी दोष प्रायः नष्ट हो जाते है ! लेकिन यह विचार सिर्फ विवाह लग्न में ही देखें, जन्म में नहीं !
पंचक नक्षत्र
धनिष्ठा का उत्तरार्ध (तृतीय व चतुर्थ चरण ), शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती आर्थात
कुल १८ चरण ; इन ५ नक्षत्रों में जब गोचर में चन्द्रमा आता है तब उस अवधि को पंचक कहा जाता है !
इस समय में दक्षिण दिशा की यात्रा, शवदाह, घर पर छत डालना या घर को ढकना , चारपाई बनवाना,
ईंधन एकत्र करना, खम्भा बनवाना वर्जित है !
गर्ग मुनि के मतानुसार इस समय में जो भी शुभ या अशुभ कम किये जाते है वह ५ गुना फल देते है !
इसी कारण से शवदाह के समय शव के साथ चार और पुतले दाह किये जाते है !
चन्द्रमा एक नक्षत्र एक दिन में पर करता है इसलिए पंचक भी साढ़े चार दिन का होता है !
एक माह में एक बार पंचक लग ही जाता है परन्तु कभी कभी अंग्रेजी माह में दो बार भी हो जाता है !
→मांगलिक दोष ←웃
प्राचीन ग्रंथों जैसे वृहत पराशर होरा शास्त्र व भाव दीपिका आदि के अनुसार कुंडली में
१, ४, ७, ८. १२ में मंगल के आने होने पर मांगलिक दोष होता है !
यह नियम उत्तर भारत में अधिक माना जाता है !
मानसागरी, अगस्त्य संहिता, जातक पारिजात, के अनुसार १, २, ४, ७, ८, १२ वें भाव में
मंगल के होने पर यह दोष होता है !
यह नियम दक्षिण भारत में माना जाता है !
• » मांगलिक दोष भंग योग « •
==>अगर मंगल लग्न में मेष या मकर राशी,
१२ वें में धनु राशी, ४ वें में वृश्चिक राशी,
७ वें में वृषभ या मकर राशी, और ८ वें में कुम्भ
या मीन राशी हो तो दोष भंग हो जाता है !
==> ४, ७ और १२ में मेष या कर्क का मंगल हो!
==> यदि गुण २७ से ज्यादा मिले तो भी दोष नहीं लगता !
==> १२ वें भाव में मंगल बुध या शुक्र की राशी में हो !
==> यदि मिलान में एक की कुंडली में जिस भाव में मंगल है ,
दूसरे की कुंडली में उसी भाव में राहू या शनि हो !
==> यदि बली गुरु और शुक्र १ या ७ वें भाव में हो !
==> यदि मंगल स्वराशी, उच्च, नीच, वक्री या अस्त हो !
==> यदि मंगल-गुरु, मंगल-राहू, मंगल-चन्द्र युति कुंडली में हो !
कुंडली में मंगल को मजबूत करने के लिए हनुमान चालीसा का नियमित पाठ लाभप्रद होता है !
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