ज्योतिष में गण्डमूल / मूल नक्षत्र
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में २७ नक्षत्रों में ६ नक्षत्र गंड मूल नक्षत्रों की श्रेणी में माने गये हैं-चंद्र मण्डल से एक लाख योजन ऊपर नक्षत्र मण्डल है।
अश्वनी,-श्लेषा,-मघा-,ज्येष्ठा,-मूल और रेवती।
उपरोक्त नक्षत्रों में उत्पन्न जातक –जातिका गंड मूलक कहलाते हैं,इन नक्षत्रों में उत्पन्न जातक स्वयं व् कुटुम्बी जनों के लिये अशुभ माने गये हैं।
''जातो न जीवतिनरो मातुरपथ्यो भवेत्स्वकुलहन्त
ा ''
लेकिन पहले यह जानना परम आवश्यक है कि गंड मूल किसे कहते हैं
गंड कहते हैं जहाँ एक राशि और नक्षत्र समाप्त हो रहे हो उसे गंड कहते हैं।
मूल कहते हैं –जहाँ दूसरी राशि से नक्षत्र का आरम्भ हो उसे मूल कहते हैं।
राशि चक्र और नक्षत्र चक्र दोनों में इन ६ नक्षत्रो पर संधि होती है और संधि समय को जितना लाभकारी माना गया है उतना ही हानिकारक भी है,संधि क्षेत्र हमेशा नाजुक और अशुभ होते हैं इसी प्रकार गंड मूल नक्षत्र भी संधि क्षेत्र में आने से दुष्परिणाम देने वाले होते हैं और राशि चक्र में यह स्थिति तीन बार आती है।
अब यह समझने का प्रयास करे कि कैसे इन ६ नक्षत्रो को गंड मूल कहा गया है।
१ - आश्लेषा नक्षत्र और कर्क राशि का एक साथ समाप्त होना और यही से मघा नक्षत्र और सिंह राशि का प्रारम्भ।
२ - ज्येष्ठा नक्षत्र और वृश्चिक राशि का समापन और यही से मूल नक्षत्र और धनु राशि का प्रारम्भ।
३- रेवती नक्षत्र और मीन राशि का समापन और यही से अश्वनी नक्षत्र और मेष राशि का प्रारम्भ।
यहाँ तीन गंड नक्षत्र हैं आश्लेषा ,ज्येष्ठा ,रेवती।
और तीन मूल नक्षत्र हैं मघा, मूल और अश्वनी।
जिस प्रकार एक ऋतु का जब समापन होता है और दूसरी ऋतु का आगमन होता है तो उन दोनों ऋतुओं का मोड स्वास्थ्य के लिये उत्तम् नहीं माना गया है इसी प्रकार नक्षत्रों का स्थान परिवर्तन जीवन और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक माना गया है।
गण्डमूल / मूल नक्षत्र :
इस श्रेणी में ६ नक्षत्र आते है !
१. रेवती, २. अश्विनी, ३. आश्लेषा, ४. मघा, ५. ज्येष्ठा, ६. मूल यह ६ नक्षत्र
मूल संज्ञक / गण्डमूल संज्ञक नक्षत्र होते है !
रेवती, आश्लेषा, ज्येष्ठा का स्वामी बुध है ! अश्विनी, मघा, मूल का स्वामी केतु है !
इन्हें २ श्रेणी में विभाजित किया गया है -बड़े मूल व छोटे मूल। मूल, ज्येष्ठा व आश्लेषा बड़े मूल कहलाते है, अश्वनी, रेवती व मघा छोटे मूल कहलाते है। बड़े मूलो में जन्मे बच्चे के लिए २७ दिन के बाद जब चन्द्रमा उसी नक्षत्र में जाये तो शांति करवानी चाहिए ऐसा पराशर का मत भी है, तब तक बच्चे के पिता को बच्चे का मुह नहीं देखना चाहिए ! जबकि छोटे मूलो में जन्मे बच्चे की मूल शांति उस नक्षत्र स्वामी के दूसरे नक्षत्र में करायी जा सकती है अर्थात १०वे या १९वे दिन में !यदि जातक के जन्म के समय चंद्रमा इन नक्षत्रों में स्थित हो तो मूल दोष होता है ; इसकी शांति नितांत आवश्यक होती है !
जन्म समय में यदि यह नक्षत्र पड़े तो दोष होता है !
दोष मानने का कारण यह है की नक्षत्र चक्र और राशी चक्र दोनों में इन नक्षत्रों पर संधि होती है ( चित्र में यह बात स्पष्टता से देखि जा सकती है ) !
और संधि का समय हमेशा से विशेष होता है ! उदाहरण के लिए रात्रि से जब दिन का प्रारम्भ होता है तो उस समय को हम ब्रम्हमुहूर्त कहते है। और ठीक इसी तरह जब दिन से रात्रि होती है तो उस समय को हम गदा बेला / गोधूली
कहते है ! इन समयों पर भगवान का ध्यान करने के लिए कहा जाता है -जिसका सीधा सा अर्थ है की इन समय पर सावधानी अपेक्षित होती है !
संधि का स्थान जितना लाभप्रद होता है उतना ही हानि कारक भी होता है !
संधि का समय अधिकतर शुभ कार्यों के लिए अशुभ ही माना जाता है !
गण्डमूल में जन्म का फल :
गण्डमूल के विभिन्न चरणों में दोष विभिन्न लोगो को लगता है, साथ ही इसका फल हमेशा बुरा ही
हो ऐसा नहीं है !
अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के लिए कष्टकारी
द्वितीय पद में - आराम तथा सुख केलिए उत्तम
तृतीय पद में - उच्च पद
चतुर्थ पद में - राज सम्मान
आश्लेषा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - यदि शांति करायीं जाये तो शुभ
द्वितीय पद में - संपत्ति के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता को हानि
चतुर्थ पद में - पिता को हानि
मघा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - माता को हानि
द्वितीय पद में - पिता को हानि
तृतीय पद में - उत्तम
चतुर्थ पद में - संपत्ति व शिक्षा के लिए उत्तम
ज्येष्ठा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - बड़े भाई के लिए अशुभ
द्वितीय पद में - छोटे भाई के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता के लिए अशुभ
चतुर्थ पद में - स्वयं के लिए अशुभ
मूल नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के जीवन में परिवर्तन
द्वितीय पद में - माता के लिए अशुभ
तृतीय पद में - संपत्संपत्ति की हानि
चतुर्थ पद में - शांति कराई जाये तो शुभ फल
रेवती नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - राज सम्मान
द्वितीय पद में - मंत्री पद
तृतीय पद में - धन सुख
चतुर्थ पद में - स्वयं को कष्ट
अभुक्तमूल
ज्येष्ठा की अंतिम एक घडी तथा मूल की प्रथम एक घटी अत्यंत हानिकर हैं
इन्हें ही अभुक्तमूल कहा जाता है, शास्त्रों के अनुसार पिता को बच्चे से ८ वर्ष
तक दूर रहना चाहिए ! यदि यह संभव ना हो तो कम से कम ६ माह तो अलग
ही रहना चाहिए ! मूल शांति के बाद ही बच्चे से मिलना चाहिए !
अभुक्तमूल पिता के लिए अत्यंत हानिकारक होता है !
यह तो था नक्षत्र गंडांत इसी आधार पर लग्न और तिथि गंडांत भी होता है।
लग्न गंडांत :-
मीन-मेष, कर्क-सिंह, वृश्चिक-धनु लग्न की आधी-२ प्रारंभ व अंत की
घडी कुल २४ मिनट लग्न गंडांत होता है !
तिथि गंडांत :- ५,१०,१५ तिथियों के अंत व ६,११,१ तिथियों के प्रारम्भ की २-२ घड़ियाँ तिथि गंडांत है रहता है !
जन्म समय में यदि तीनों गंडांत एक साथ पड़ रहे है तो यह महा-अशुभ होता है।
नक्षत्र गंडांत अधिक अशुभ, लग्न गंडांत मध्यम अशुभ व तिथि गंडांत सामान्य अशुभ होता है, जितने ज्यादा गंडांत दोष लगेंगे किसी कुंडली में उतना ही अधिक अशुभ फल कारक होंगे।
गण्ड का परिहार :
१. गर्ग के मतानुसार
रविवार को अश्विनी में जन्म हो या सूर्यवार बुधवार को ज्येष्ठ, रेवती, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति हो तो नक्षत्र जन्म दोष कम होता है !
२. बादरायण के मतानुसार गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा यदि लग्नेश से कोई सम्बन्ध, विशेषतया दृष्टि सम्बन्ध न बनाता हो तो इस दोष में कमी होती है !
३. वशिष्ठ जी के अनुसार दिन में मूल का दूसरा चरण हो और रात में मूल का पहला चरण हो तो माता-पिता के लिए कष्ट होता है इसलिए शांति अवश्य कराये!
४. ब्रम्हा जी का वाक्य है की चन्द्रमा यदि बलवान हो तो नक्षत्र गण्डांत व गुरु बलि हो तो लग्न गण्डांत का दोष काफी कम लगता है !
५. वशिष्ठ के मतानुसार अभिजीत मुहूर्त में जन्म होने पर गण्डांतादी दोष प्रायः नष्ट हो जाते है ! लेकिन यह विचार सिर्फ विवाह लग्न में ही देखें, जन्म में नहीं !
निम्नलिखित विशेष परिस्थितियों में गण्ड या गण्डांत का प्रभाव काफी हद तक कम हो जाता है (लेकिन फिर भी शांति अनिवार्य है) !
इन नक्षत्रों में जिनका जन्म हुआ हो तो उस नक्षत्र की शान्ति हेतु जप और हवन अवश्य कर लेनी चाहिए --
१ अश्वनी के लिये ५००० मन्त्र जप।
२ आश्लेषा के लिये १०००० मन्त्र जप।
३ मघा के लिये १०००० मन्त्र जप।
४ ज्येष्ठा के लिये ५००० मन्त्र जप।
५ मूल के लिये ५००० मन्त्र जप।
६ रेवती के लिये५००० मन्त्र जप।
इन नक्षत्रों की शान्ति हेतु ग्रह, स्व इष्ट, कुल देवताओं का पूजन ,रुद्राभिषेक तथा नक्षत्र तथा नक्षत्र के स्वामी का पूजन अर्चन करने के बाद दशांश हवन किसी सुयोग्य ब्राह्मण से अवश्य करवाए ।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में २७ नक्षत्रों में ६ नक्षत्र गंड मूल नक्षत्रों की श्रेणी में माने गये हैं-चंद्र मण्डल से एक लाख योजन ऊपर नक्षत्र मण्डल है।
अश्वनी,-श्लेषा,-मघा-,ज्येष्ठा,-मूल और रेवती।
उपरोक्त नक्षत्रों में उत्पन्न जातक –जातिका गंड मूलक कहलाते हैं,इन नक्षत्रों में उत्पन्न जातक स्वयं व् कुटुम्बी जनों के लिये अशुभ माने गये हैं।
''जातो न जीवतिनरो मातुरपथ्यो भवेत्स्वकुलहन्त
ा ''
लेकिन पहले यह जानना परम आवश्यक है कि गंड मूल किसे कहते हैं
गंड कहते हैं जहाँ एक राशि और नक्षत्र समाप्त हो रहे हो उसे गंड कहते हैं।
मूल कहते हैं –जहाँ दूसरी राशि से नक्षत्र का आरम्भ हो उसे मूल कहते हैं।
राशि चक्र और नक्षत्र चक्र दोनों में इन ६ नक्षत्रो पर संधि होती है और संधि समय को जितना लाभकारी माना गया है उतना ही हानिकारक भी है,संधि क्षेत्र हमेशा नाजुक और अशुभ होते हैं इसी प्रकार गंड मूल नक्षत्र भी संधि क्षेत्र में आने से दुष्परिणाम देने वाले होते हैं और राशि चक्र में यह स्थिति तीन बार आती है।
अब यह समझने का प्रयास करे कि कैसे इन ६ नक्षत्रो को गंड मूल कहा गया है।
१ - आश्लेषा नक्षत्र और कर्क राशि का एक साथ समाप्त होना और यही से मघा नक्षत्र और सिंह राशि का प्रारम्भ।
२ - ज्येष्ठा नक्षत्र और वृश्चिक राशि का समापन और यही से मूल नक्षत्र और धनु राशि का प्रारम्भ।
३- रेवती नक्षत्र और मीन राशि का समापन और यही से अश्वनी नक्षत्र और मेष राशि का प्रारम्भ।
यहाँ तीन गंड नक्षत्र हैं आश्लेषा ,ज्येष्ठा ,रेवती।
और तीन मूल नक्षत्र हैं मघा, मूल और अश्वनी।
जिस प्रकार एक ऋतु का जब समापन होता है और दूसरी ऋतु का आगमन होता है तो उन दोनों ऋतुओं का मोड स्वास्थ्य के लिये उत्तम् नहीं माना गया है इसी प्रकार नक्षत्रों का स्थान परिवर्तन जीवन और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक माना गया है।
गण्डमूल / मूल नक्षत्र :
इस श्रेणी में ६ नक्षत्र आते है !
१. रेवती, २. अश्विनी, ३. आश्लेषा, ४. मघा, ५. ज्येष्ठा, ६. मूल यह ६ नक्षत्र
मूल संज्ञक / गण्डमूल संज्ञक नक्षत्र होते है !
रेवती, आश्लेषा, ज्येष्ठा का स्वामी बुध है ! अश्विनी, मघा, मूल का स्वामी केतु है !
इन्हें २ श्रेणी में विभाजित किया गया है -बड़े मूल व छोटे मूल। मूल, ज्येष्ठा व आश्लेषा बड़े मूल कहलाते है, अश्वनी, रेवती व मघा छोटे मूल कहलाते है। बड़े मूलो में जन्मे बच्चे के लिए २७ दिन के बाद जब चन्द्रमा उसी नक्षत्र में जाये तो शांति करवानी चाहिए ऐसा पराशर का मत भी है, तब तक बच्चे के पिता को बच्चे का मुह नहीं देखना चाहिए ! जबकि छोटे मूलो में जन्मे बच्चे की मूल शांति उस नक्षत्र स्वामी के दूसरे नक्षत्र में करायी जा सकती है अर्थात १०वे या १९वे दिन में !यदि जातक के जन्म के समय चंद्रमा इन नक्षत्रों में स्थित हो तो मूल दोष होता है ; इसकी शांति नितांत आवश्यक होती है !
जन्म समय में यदि यह नक्षत्र पड़े तो दोष होता है !
दोष मानने का कारण यह है की नक्षत्र चक्र और राशी चक्र दोनों में इन नक्षत्रों पर संधि होती है ( चित्र में यह बात स्पष्टता से देखि जा सकती है ) !
और संधि का समय हमेशा से विशेष होता है ! उदाहरण के लिए रात्रि से जब दिन का प्रारम्भ होता है तो उस समय को हम ब्रम्हमुहूर्त कहते है। और ठीक इसी तरह जब दिन से रात्रि होती है तो उस समय को हम गदा बेला / गोधूली
कहते है ! इन समयों पर भगवान का ध्यान करने के लिए कहा जाता है -जिसका सीधा सा अर्थ है की इन समय पर सावधानी अपेक्षित होती है !
संधि का स्थान जितना लाभप्रद होता है उतना ही हानि कारक भी होता है !
संधि का समय अधिकतर शुभ कार्यों के लिए अशुभ ही माना जाता है !
गण्डमूल में जन्म का फल :
गण्डमूल के विभिन्न चरणों में दोष विभिन्न लोगो को लगता है, साथ ही इसका फल हमेशा बुरा ही
हो ऐसा नहीं है !
अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के लिए कष्टकारी
द्वितीय पद में - आराम तथा सुख केलिए उत्तम
तृतीय पद में - उच्च पद
चतुर्थ पद में - राज सम्मान
आश्लेषा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - यदि शांति करायीं जाये तो शुभ
द्वितीय पद में - संपत्ति के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता को हानि
चतुर्थ पद में - पिता को हानि
मघा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - माता को हानि
द्वितीय पद में - पिता को हानि
तृतीय पद में - उत्तम
चतुर्थ पद में - संपत्ति व शिक्षा के लिए उत्तम
ज्येष्ठा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - बड़े भाई के लिए अशुभ
द्वितीय पद में - छोटे भाई के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता के लिए अशुभ
चतुर्थ पद में - स्वयं के लिए अशुभ
मूल नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के जीवन में परिवर्तन
द्वितीय पद में - माता के लिए अशुभ
तृतीय पद में - संपत्संपत्ति की हानि
चतुर्थ पद में - शांति कराई जाये तो शुभ फल
रेवती नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - राज सम्मान
द्वितीय पद में - मंत्री पद
तृतीय पद में - धन सुख
चतुर्थ पद में - स्वयं को कष्ट
अभुक्तमूल
ज्येष्ठा की अंतिम एक घडी तथा मूल की प्रथम एक घटी अत्यंत हानिकर हैं
इन्हें ही अभुक्तमूल कहा जाता है, शास्त्रों के अनुसार पिता को बच्चे से ८ वर्ष
तक दूर रहना चाहिए ! यदि यह संभव ना हो तो कम से कम ६ माह तो अलग
ही रहना चाहिए ! मूल शांति के बाद ही बच्चे से मिलना चाहिए !
अभुक्तमूल पिता के लिए अत्यंत हानिकारक होता है !
यह तो था नक्षत्र गंडांत इसी आधार पर लग्न और तिथि गंडांत भी होता है।
लग्न गंडांत :-
मीन-मेष, कर्क-सिंह, वृश्चिक-धनु लग्न की आधी-२ प्रारंभ व अंत की
घडी कुल २४ मिनट लग्न गंडांत होता है !
तिथि गंडांत :- ५,१०,१५ तिथियों के अंत व ६,११,१ तिथियों के प्रारम्भ की २-२ घड़ियाँ तिथि गंडांत है रहता है !
जन्म समय में यदि तीनों गंडांत एक साथ पड़ रहे है तो यह महा-अशुभ होता है।
नक्षत्र गंडांत अधिक अशुभ, लग्न गंडांत मध्यम अशुभ व तिथि गंडांत सामान्य अशुभ होता है, जितने ज्यादा गंडांत दोष लगेंगे किसी कुंडली में उतना ही अधिक अशुभ फल कारक होंगे।
गण्ड का परिहार :
१. गर्ग के मतानुसार
रविवार को अश्विनी में जन्म हो या सूर्यवार बुधवार को ज्येष्ठ, रेवती, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति हो तो नक्षत्र जन्म दोष कम होता है !
२. बादरायण के मतानुसार गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा यदि लग्नेश से कोई सम्बन्ध, विशेषतया दृष्टि सम्बन्ध न बनाता हो तो इस दोष में कमी होती है !
३. वशिष्ठ जी के अनुसार दिन में मूल का दूसरा चरण हो और रात में मूल का पहला चरण हो तो माता-पिता के लिए कष्ट होता है इसलिए शांति अवश्य कराये!
४. ब्रम्हा जी का वाक्य है की चन्द्रमा यदि बलवान हो तो नक्षत्र गण्डांत व गुरु बलि हो तो लग्न गण्डांत का दोष काफी कम लगता है !
५. वशिष्ठ के मतानुसार अभिजीत मुहूर्त में जन्म होने पर गण्डांतादी दोष प्रायः नष्ट हो जाते है ! लेकिन यह विचार सिर्फ विवाह लग्न में ही देखें, जन्म में नहीं !
निम्नलिखित विशेष परिस्थितियों में गण्ड या गण्डांत का प्रभाव काफी हद तक कम हो जाता है (लेकिन फिर भी शांति अनिवार्य है) !
इन नक्षत्रों में जिनका जन्म हुआ हो तो उस नक्षत्र की शान्ति हेतु जप और हवन अवश्य कर लेनी चाहिए --
१ अश्वनी के लिये ५००० मन्त्र जप।
२ आश्लेषा के लिये १०००० मन्त्र जप।
३ मघा के लिये १०००० मन्त्र जप।
४ ज्येष्ठा के लिये ५००० मन्त्र जप।
५ मूल के लिये ५००० मन्त्र जप।
६ रेवती के लिये५००० मन्त्र जप।
इन नक्षत्रों की शान्ति हेतु ग्रह, स्व इष्ट, कुल देवताओं का पूजन ,रुद्राभिषेक तथा नक्षत्र तथा नक्षत्र के स्वामी का पूजन अर्चन करने के बाद दशांश हवन किसी सुयोग्य ब्राह्मण से अवश्य करवाए ।
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