Saturday, September 30, 2017

विविध भावों में लग्नेश

विविध भावों में लग्नेश

लग्न के बारे में हम जान ही चुके हैं। लग्न भाव में जो भी राशि होती है उसका स्वामी लग्नेश कहलाता है जैसे मेष राशि लग्न में हो तो मंगल लग्नेश बनेगा। लग्नेश की स्थिति जिस भाव में हो, उसके अनुसार कुंडली का फलादेश प्रभावित होता है। आइए विस्तार से जानें - 

1. लग्नेश लग्न में हो तो अच्छा स्वास्थ्‍य रहता है। आत्मविश्वास रहता है, यश मिलता है, दीर्घायु होते हैं। 
2. लग्नेश द्वितीय स्थान में होने से परिवार की उन्नति होती है, सुख-शांति रहती है। आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है। 
3. लग्नेश तृतीय स्थान में होतो छोटे-छोटे प्रवास होते हैं। लिखने-पढ़ने में रुचि रहती है, भाई-बहनों का सुख मिलता है। 
4. लग्नेश चौथे स्थान में हो तो मन प्रसन्न रहता है, स्वभाव मौजी होता है। घर-वाहन का सुख मिलता है। 
5. लग्नेश पंचम में होने पर शिक्षा में, कला में यश मिलता है। संतति सुख अच्छा रहता है।
6. लग्नेश षष्ठ भाव में हो तो स्वास्थ्‍य में परेशानी होती है। किए गए कार्य का यश नहीं मिलता। मामा-मौसी का प्रेम मिलता है। 
7. लग्नेश सप्तम में होने पर मनचाहा विवाह होता है। व्यवसाय में यश मिलता है।
8. लग्नेश की अष्टम स्थिति जीवन को संघर्षमय बनाती है, आयु घटती है, स्वास्थ्य कष्ट बना रहता है।
9. लग्नेश नवम में हो तो आध्यात्मिक प्रगति होती है। भाग्य साथ देता है। यश-कीर्ति मिलती है। विदेश यात्रा होती है। 
10. लग्नेश की दशम स्थिति नौकरी में पदोन्नति, राज्य से सम्मान, पितृ सौख्य, प्रतिष्ठा देती है। 
11. लग्नेश एकादश में हो तो मित्र अच्छे मिलते हैं। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण रहता है, उनसे सहयोग मिलता है। 
12. लग्नेश की व्यय में स्थिति जीवन को कष्टमय बनाती है। व्यक्ति अपराधी, व्यसनाधीन बन जाता है। शुभ ग्रहों का साथ हो तो परदेश गमन होता है, प्रगति होती है।

विशेष : लग्नेश पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो शुभ फल घटते हैं।

जन्म कुंडली के 12 भाव

""""""जन्म कुंडली के 12 भाव"""'''

।लग्नभाव प्रथम भाव है, उसे तन भाव कहते हैं।

दूसरे भाव को धन भाव,

तृतीय भाव को भ्राता अर्थात भाई और पराक्रम भाव,

चतुर्थ भाव को सुख एवं मातृभाव,

पंचम भाव को संतान भाव,

षष्ठ भाव को रोग ऋण शत्रु भाव,

सप्तम भाव को भार्या पत्नी या पति भाव,

अष्टम भाव को आयु भाव,

नवम भाव को भाग्यभाव तथा धर्म भाव,

दशम भाव को कर्म एवं पिता भाव,

एकादश भाव को आय भाव और

द्वादश भाव को व्यय भाव कहते है
1. इसीलिए प्रथम भाव जन्म भाव कहलाता है। जन्म लेने पर जो वस्तुएं मनुष्य को प्राप्त होती हैं उन सब वस्तुओं का विचार अथवा संबंध प्रथम भाव से होता है जैसे- रंग-रूप, कद, जाति, जन्म स्थान तथा जन्म समय की बातें।

2. मनुष्य को शरीर तो प्राप्त हो गया, किंतु शरीर को गतिमान बनाए रखने के लिए खाद्य पदार्थों, धन अथवा कुटुंब की आवश्यकता होती है। इसीलिए खाद्य पदार्थ, धन, कुटुंब आदि का संबंध द्वितीय भाव से है।धन अथवा अन्य आवश्यकता की वस्तुएं बिना श्रम के प्राप्त नहीं हो सकतीं और बिना परिश्रम के धन टिक नहीं सकता।3. धन-धान्य इत्यादि वस्तुएं आदि रखने के लिए बल आदि की आवश्यकता होती है इसीलिए तृतीय भाव का संबंध, बल, परिश्रम व बाहु से होता है।

4. शरीर, परिश्रम, धन आदि तभी सार्थक होंगे जब कार्य करने की भावना होगी, रूचि होगी अन्यथा सब व्यर्थ है। अत: कामनाओं, भावनाओं को चतुर्थ भाव रखा गया है। चतुर्थ भाव का संबंध मन-भावनाओं के विकास से है।

5. मनुष्य के पास शरीर, धन, परिश्रम, शक्ति, इच्छा सभी हों, किंतु कार्य करने की तकनीकी जानकारी का अभाव हो अर्थात् वैचारिक शक्ति का अभाव हो अथवा कर्म विधि का ज्ञान न हो तो जीवन में उन्नति मिलना मुश्किल है। पंचम भाव का संबंध मनुष्य की वैचारिक शक्ति के विकास से है।

6. यदि मनुष्य अड़चनों, विरोधी शक्तियों, मुश्किलों आदि से लड़ न पाए तो जीवन निखरता नहीं है। अत: षष्ठ भाव शत्रु, विरोध, कठिनाइयों आदि से संबंधित है।

7. मनुष्य में यदि दूसरों से मिलकर चलने की शक्ति न हो और वीर्य शक्ति न या संतान को पैदा करने मे असमर्थ हो हो तो वह जीवन में असफल समझा जाएगा। अत: मिलकर चलने की आदत आवश्यक है और उसके लिए भागीदार, जीवनसाथी की आवश्यकता होती ही है। अत: जीवनसाथी, भागीदार आदि का विचार सप्तम भाव से किया जाता है।8. यदि मनुष्य अपने साथ आयु लेकर न आए तो उसका रंग-रूप, स्वास्थ्य, गुण, व्यापार आदि कोशिशें सब बेकार अर्थात् व्यर्थ हो जाएंगी। अत: अष्टम भाव को आयु भाव माना गया है। आयु का विचार अष्टम से करना चाहिए ।

9. नवम स्थान को धर्म व भाग्य स्थान माना है। धर्म-कर्म अच्छे होने पर मनुष्य के भाग्य में उन्नति होती है और इसीलिए धर्म और भाग्य का स्थान नवम माना गया है।

10. दसवें स्थान अथवा भाव को कर्म का स्थान दिया गया है। अत: जैसा कर्म हमने अपने पूर्व में किया होगा उसी के अनुसार हमें फल मिलेगा।

11. एकादश स्थान प्राप्ति स्थान है। हमने जैसे धर्म-कर्म किए होंगे उसी के अनुसार हमें प्राप्ति होगी अर्थात् अर्थ लाभ होगा, क्योंकि बिना अर्थ सब व्यर्थ है आज इस अर्थ प्रधान युग में।

12. द्वादश भाव को मोक्ष स्थान माना गया है। अत: संसार में आने और जन्म लेने के उद्देश्य को हमारी जन्मकुंडली क्रम से इसी तथ्य को व्यक्त करती है।प्रथम भाव से जातक की शारीरिक स्‍थिति, स्वास्थ्य, रूप, वर्ण,‍ चिह्न, जाति, स्वभाव, गुण, आकृति, सुख, दु:ख, सिर, पितामह तथा शील आदि का विचार करना चाहिए।

द्वितीय भाव से धनसंग्रह, पारिवारिक स्‍थिति, उच्च विद्या, खाद्य-पदार्थ, वस्त्र, मुखस्थान, दा‍हिनी आंख, वाणी, अर्जित धन तथा स्वर्णादि धातुओं का संचार होता है।

तृतीय भाव से पराक्रम, छोटे भाई-बहनों का सुख, नौकर-चाकर, साहस, शौर्य, धैर्य, चाचा, मामा तथा दाहिने कान का विचार करना चाहिए।

चतुर्थ भाव से माता, स्थायी संपत्ति, भूमि, भवन, वाहन, पशु आदि का सुख, मित्रों की स्थिति, श्वसुर तथा हृदय स्थान का विचार करना चाहिए।

पंचम भाव से विद्या, बुद्धि, नीति, गर्भ स्थिति, संतान, गुप्त मंत्रणा, मंत्र सिद्धि, विचार-शक्ति, लेखन, प्रबंधात्मक योग्यता, पूर्व जन्म का ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान, प्रेम-संबंध, इच्‍छाशक्ति आदि का विचार करना चाहिए।

षष्ठ भाव से शत्रु, रोग, ऋण, चोरी अथवा दुर्घटना, काम, क्रोध, मद, मोह, लोभादि विकार, अपयश, मामा की स्थिति, मौसी, पापकर्म, गुदा स्‍थान तथा कमर संबंधी रोगों का विचार करना चाहिए।सप्तम भाव से स्त्री एवं विवाह सुख,‍ स्‍त्रियों की कुंडली में पति का विचार, वैवाहिक सुख, साझेदारी के कार्य, व्यापार में हानि, लाभ, वाद-विवाद, मुकदमा, कलह, प्रवास, छोटे भाई-बहनों की संतानें, यात्रा तथा जननेन्द्रिय संबंधी गुप्त रोगों का विचार करना चाहिए।

अष्टम भाव से मृत्यु तथा मृत्यु के कारण, आयु, गुप""""""जन्म कुंडली के 12 भाव"""'''

।लग्नभाव प्रथम भाव है, उसे तन भाव कहते हैं।

दूसरे भाव को धन भाव,

तृतीय भाव को भ्राता अर्थात भाई और पराक्रम भाव,

चतुर्थ भाव को सुख एवं मातृभाव,

पंचम भाव को संतान भाव,

षष्ठ भाव को रोग ऋण शत्रु भाव,

सप्तम भाव को भार्या पत्नी या पति भाव,

अष्टम भाव को आयु भाव,

नवम भाव को भाग्यभाव तथा धर्म भाव,

दशम भाव को कर्म एवं पिता भाव,

एकादश भाव को आय भाव और

द्वादश भाव को व्यय भाव कहते है
1. इसीलिए प्रथम भाव जन्म भाव कहलाता है। जन्म लेने पर जो वस्तुएं मनुष्य को प्राप्त होती हैं उन सब वस्तुओं का विचार अथवा संबंध प्रथम भाव से होता है जैसे- रंग-रूप, कद, जाति, जन्म स्थान तथा जन्म समय की बातें।

2. मनुष्य को शरीर तो प्राप्त हो गया, किंतु शरीर को गतिमान बनाए रखने के लिए खाद्य पदार्थों, धन अथवा कुटुंब की आवश्यकता होती है। इसीलिए खाद्य पदार्थ, धन, कुटुंब आदि का संबंध द्वितीय भाव से है।धन अथवा अन्य आवश्यकता की वस्तुएं बिना श्रम के प्राप्त नहीं हो सकतीं और बिना परिश्रम के धन टिक नहीं सकता।3. धन-धान्य इत्यादि वस्तुएं आदि रखने के लिए बल आदि की आवश्यकता होती है इसीलिए तृतीय भाव का संबंध, बल, परिश्रम व बाहु से होता है।

4. शरीर, परिश्रम, धन आदि तभी सार्थक होंगे जब कार्य करने की भावना होगी, रूचि होगी अन्यथा सब व्यर्थ है। अत: कामनाओं, भावनाओं को चतुर्थ भाव रखा गया है। चतुर्थ भाव का संबंध मन-भावनाओं के विकास से है।

5. मनुष्य के पास शरीर, धन, परिश्रम, शक्ति, इच्छा सभी हों, किंतु कार्य करने की तकनीकी जानकारी का अभाव हो अर्थात् वैचारिक शक्ति का अभाव हो अथवा कर्म विधि का ज्ञान न हो तो जीवन में उन्नति मिलना मुश्किल है। पंचम भाव का संबंध मनुष्य की वैचारिक शक्ति के विकास से है।

6. यदि मनुष्य अड़चनों, विरोधी शक्तियों, मुश्किलों आदि से लड़ न पाए तो जीवन निखरता नहीं है। अत: षष्ठ भाव शत्रु, विरोध, कठिनाइयों आदि से संबंधित है।

7. मनुष्य में यदि दूसरों से मिलकर चलने की शक्ति न हो और वीर्य शक्ति न या संतान को पैदा करने मे असमर्थ हो हो तो वह जीवन में असफल समझा जाएगा। अत: मिलकर चलने की आदत आवश्यक है और उसके लिए भागीदार, जीवनसाथी की आवश्यकता होती ही है। अत: जीवनसाथी, भागीदार आदि का विचार सप्तम भाव से किया जाता है।8. यदि मनुष्य अपने साथ आयु लेकर न आए तो उसका रंग-रूप, स्वास्थ्य, गुण, व्यापार आदि कोशिशें सब बेकार अर्थात् व्यर्थ हो जाएंगी। अत: अष्टम भाव को आयु भाव माना गया है। आयु का विचार अष्टम से करना चाहिए ।

9. नवम स्थान को धर्म व भाग्य स्थान माना है। धर्म-कर्म अच्छे होने पर मनुष्य के भाग्य में उन्नति होती है और इसीलिए धर्म और भाग्य का स्थान नवम माना गया है।

10. दसवें स्थान अथवा भाव को कर्म का स्थान दिया गया है। अत: जैसा कर्म हमने अपने पूर्व में किया होगा उसी के अनुसार हमें फल मिलेगा।

11. एकादश स्थान प्राप्ति स्थान है। हमने जैसे धर्म-कर्म किए होंगे उसी के अनुसार हमें प्राप्ति होगी अर्थात् अर्थ लाभ होगा, क्योंकि बिना अर्थ सब व्यर्थ है आज इस अर्थ प्रधान युग में।

12. द्वादश भाव को मोक्ष स्थान माना गया है। अत: संसार में आने और जन्म लेने के उद्देश्य को हमारी जन्मकुंडली क्रम से इसी तथ्य को व्यक्त करती है।प्रथम भाव से जातक की शारीरिक स्‍थिति, स्वास्थ्य, रूप, वर्ण,‍ चिह्न, जाति, स्वभाव, गुण, आकृति, सुख, दु:ख, सिर, पितामह तथा शील आदि का विचार करना चाहिए।

द्वितीय भाव से धनसंग्रह, पारिवारिक स्‍थिति, उच्च विद्या, खाद्य-पदार्थ, वस्त्र, मुखस्थान, दा‍हिनी आंख, वाणी, अर्जित धन तथा स्वर्णादि धातुओं का संचार होता है।

तृतीय भाव से पराक्रम, छोटे भाई-बहनों का सुख, नौकर-चाकर, साहस, शौर्य, धैर्य, चाचा, मामा तथा दाहिने कान का विचार करना चाहिए।

चतुर्थ भाव से माता, स्थायी संपत्ति, भूमि, भवन, वाहन, पशु आदि का सुख, मित्रों की स्थिति, श्वसुर तथा हृदय स्थान का विचार करना चाहिए।

पंचम भाव से विद्या, बुद्धि, नीति, गर्भ स्थिति, संतान, गुप्त मंत्रणा, मंत्र सिद्धि, विचार-शक्ति, लेखन, प्रबंधात्मक योग्यता, पूर्व जन्म का ज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान, प्रेम-संबंध, इच्‍छाशक्ति आदि का विचार करना चाहिए।

षष्ठ भाव से शत्रु, रोग, ऋण, चोरी अथवा दुर्घटना, काम, क्रोध, मद, मोह, लोभादि विकार, अपयश, मामा की स्थिति, मौसी, पापकर्म, गुदा स्‍थान तथा कमर संबंधी रोगों का विचार करना चाहिए।सप्तम भाव से स्त्री एवं विवाह सुख,‍ स्‍त्रियों की कुंडली में पति का विचार, वैवाहिक सुख, साझेदारी के कार्य, व्यापार में हानि, लाभ, वाद-विवाद, मुकदमा, कलह, प्रवास, छोटे भाई-बहनों की संतानें, यात्रा तथा जननेन्द्रिय संबंधी गुप्त रोगों का विचार करना चाहिए।

अष्टम भाव से मृत्यु तथा मृत्यु के कारण, आयु, गुपगुप्त धन की प्राप्ति, विघ्न, नदी अथवा समुद्र की यात्राएं, पूर्व जन्मों की स्मृति, मृत्यु के बाद की स्थिति, ससुराल से धनादि प्राप्त होने की स्‍थिति, दुर्घटना, पिता के बड़े भाई तथा गुदा अथवा अण्डकोश संबंधी गुप्त रोगों का विचार करना चाहिए।

नवम भाव से धर्म, दान, पुण्य, भाग्य, तीर्थयात्रा, विदेश यात्रा, उत्तम विद्या, पौत्र, छोटा बहनोई, मानसिक वृत्ति, मरणोत्तर जीवन का ज्ञान, मंदिर, गुरु तथा यश आदि का विचार करना चाहिए।

दशम भाव से पिता, कर्म, अधिकार की प्राप्ति, राज्य प्रतिष्ठा, पदोन्नति, नौकरी, व्यापार, विदेश यात्रा, जीविका का साधन, कार्यसिद्धि, नेता, सास, आकाशीय स्‍थिति एवं घुटनों का विचार करना चाहिए।

एकादश भाव से आय, बड़ा भाई, मित्र, दामाद, पुत्रवधू, ऐश्वर्य-संपत्ति, वाहनादि के सुख, पारिवारिक सुख, गुप्त धन, दाहिना कान, मांगलिक कार्य, भौतिक पदार्थ का विचार करना चाहिए।

द्वादश भाव से धनहानि, खर्च, दंड, व्यसन, शत्रु पक्ष से हानि, बायां नेत्र, अपव्यय, गुप्त संबंध, शय्या सुख, दु:ख, पीड़ा, बंधन, कारागार, मरणोपरांत जीव की गति, मुक्ति, षड्यंत्र, धोखा, राजकीय संकट तथा पैर के तलुए का विचार करना चाहिए।

जन्म कुंडली से जानें पिता-पुत्र के संबंध

जन्म कुंडली से जानें पिता-पुत्र के संबंध
आपकी जन्म कुंडली के अनुसार आपका आपके पुत्र से संबंध कैसा रहेगा? कभी-कभी पिता और पुत्र में झगड़ा भी होता है। देखें कि किन-किन ग्रहों से पिता एवं पुत्र का संबंध है। पिता के लग्न से दशम राशि में यदि पुत्र का जन्म लग्न में हो तो पुत्र-पिता तुल्य गुणवान होता है। यदि पिता के द्वितीय, तृतीय, नवम व एकादश भावस्थ राशि में पुत्र का जन्म लग्न हो तो पुत्र पिता के अधीन रहता है।यदि पिता के षष्ठम व अष्टम भाव में जो राशि हो, वही पुत्र का जन्म लग्न हो तो पुत्र, पिता का शत्रु होता है और यदि पिता के द्वादश भाव गत राशि में पुत्र का जन्म हो तो भी पिता-पुत्र में उत्तम स्नेह नहीं रहता।
यदि पिता की कुंडली का षष्ठेश अथवा अष्टमेश पुत्र की कुंडली के लग्न में बैठा हो तो पिता से पुत्र विशेष गुणी होता है। यदि लग्नेश की दृष्टि पंचमेश पर पड़ती हो और पंचमेश की दृष्टि लग्नेश पर पड़ती हो अथवा लग्नेश पंचमेश के गृह में हो और पंचमेश नवमेश के गृह में हो अथवा पंचमेश नवमेश के नवांश में हो तो पुत्र आज्ञाकारी और सेवक होता है। यदि पंचम स्थान में लग्नाधिपति और त्रिकोणाधिपति साथ होकर बैठे हों और उन पर शुभग्रह की दृष्टि भी पड़ती हो तो जातक के लिए केवल राज योग ही नहीं होता वरन् उसके पुत्रादि सुशील, सुखी, उन्नतिशील और पिता को सुखी रखने वाले होते हैं परंतु यदि षष्ठेश, अष्टमेश अथवा द्वादशेश पाप ग्रह और दुर्बल होकर पंचम स्थान में बैठे हों तो ऐसा जातक अपनी संतान के रोग ग्रस्त रहने के कारण उससे शत्रुता के कारण, संतान से असभ्य व्यवहार के कारण अथवा संतान-मृत्यु के कारण पीड़ित रहता है।
यदि पंचमेश पंचमगत हो अथवा लग्न पर दृष्टि रखता हो अथवा लग्नेश पंचमस्थ हो तो पुत्र आज्ञाकारी और प्रिय होता है।स्मरण रहे कि जितना ही पंचम स्थान का लग्न से शुभ संबंध होगा, उतना ही पिता-पुत्र का संबंध उत्तम और घनिष्ठ होगा। यदि पंचमेश 6, 8 व 12 स्थान में हो और उस पर लग्नेश की दृष्टि न पड़ती हो तो पिता-पुत्र का संबंध उत्तम होता है। यदि पंचमेश 6, 8 व 12 स्थानगत हो तो उस पर लग्नेश, मंगल और राहू की दृष्टि भी पड़ती हो तो पुत्र-पिता से घृणा करेगा और पिता को गाली-गलौच तक करने में बाज नहीं आएगा। पद लग्न से पुत्र और पिता का भी विचार किया जाता है।पद लग्न से केंद्र अथवा त्रिकोण में अथवा उपचय स्थान में यदि पंचम राशि पड़ती हो तो पिता-पुत्र में परस्पर मित्रता होती है, परंतु लग्न से पंचमेश 6, 8, 12 स्थान में पड़े तो पिता-पुत्र में बैर होता है।

||राजयोग के उच्चस्तरीय प्रकार||

||राजयोग के उच्चस्तरीय प्रकार||                                 राजयोग सफलता, सोभाग्य, समृद्धि, पद आदि जैसे शुभ फल देने वाला योग है।जब कुंडली के केंद्र त्रिकोण के स्वामी आपस में युति, दृष्टि, राशि परिवर्तन आदि तरह से सम्बन्ध बनाते है तो उसे राजयोग कहते है।केंद्र त्रिकोण के स्वामी के बीच कुछ ऐसे सम्बन्ध होते है जो दमदार और उच्च स्तरीय राजयोग बनाते है तो कुछ उससे कम,                                                                                                                 **दशमेश और नवमेश का सम्बन्ध किसी भी तरह से बनने पर सबसे उच्चस्तर शक्तिशाली राजयोग होता है।                              **दशमेश का दशम भाव में बैठना और नवमेश का नवम भाव में बैठना यह भी उच्च स्तरीय राजयोग है।                                                 **इसके बाद लग्नेश दशमेश और लग्नेश नवमेश का सम्बन्ध प्रबल राजयोग बनता है।                                                                          **इसके बाद दशमेश पंचमेश का सम्बन्ध और नवमेश चतुर्थेश का सम्बन्ध राजयोग आता है।                                                                                ** इसके बाद चतुर्थेश और पंचमेश का सम्बन्ध राजयोग आता है।                                                                                              **लग्नेश पंचमेश का सम्बन्ध राजयोग बनाएगा।                                                                                    **सप्तमेश पंचमेश और सप्तमेश नवमेश का सम्बन्ध राजयोग बनाएगा।सप्तमेश नवमेश के शुभ सम्बन्ध से शादी के बाद और पंचमेश सप्तमेश के शुभ सम्बन्ध से शादी बाद संतान हो जाने से राजयोग के ज्यादा शुभ फल मिलने लगते है।                                                     इस तरह क्रम से ऊपर लिखे राजयोग सुखदायक होतेहै।जब केन्द्रेश त्रिकोणेश का सम्बन्ध केंद्र या त्रिकोण भाव में बनता है तब ज्यादा श्रेष्ठ होता है और त्रिक भाव बनने से श्रेष्ठता में कमी आ जाती है।कुछ जातको की लग्न कुंडली में राजयोग नही होता फिर भी वह राजयोग भोगतेहै।ऐसे जातको की नवमांश कुंडली में राजयोग होता है जिस कारण उनकोराजयोग संबंधी फल मिलते है।नवमांश कुंडली में बनने वाला राजयोग पूरी तरह जब फलित होता है जब नवमांश लग्न लग्न कुंडली के लग्न से बली हो साथ ही चंद्र और चंद्र राशि का स्वामी लग्न कुंडली से ज्यादा नवमांश कुंडली में बली और शुभ हो।राजयोगकारक ग्रह यदि अशुभ प्रभाव, नीच राशि, अस्त, कमजोर हो तब इनकी शुभता ओर बल में वृद्धि के लिए उपाय करने से शुभ फल में वृद्धि की जा सकती है।

आपकी कुंडली में गुरु ग्रह का दोष है ?


गुरू:---
--------अगर आपकी कुंडली में गुरु ग्रह का दोष है जिसके कारण आपको शादी और भाग्य जैसी समस्याओं का सामना करना पड रहा है और यदि आपके अनूकुल स्थितियां होते हुए भी आपके विवाह में समस्या उत्पन्न हो रही है तो गुरुवार का दिन आपके लिए शुभ हो सकता है। गुरु दोष के शान्ति के लिए गुरुवार को कुछ उपाय करें जिससे आपको अपने काम में सफलता जरुर मिलेगी। ऐसे उपाय के बारें में जिसे गुरुवार के दिन करनें से गुरु ग्रह के दोष दूर हो जाएगे साथ ही आपको धन-धान्य की प्राप्ति होगी।
------ज्योतिषीय दृष्टि से भी गुरू ताकतवर या सबसे उदार ग्रह है। सप्ताह का चौथा दिन बृहस्पतिवार गुरू से जुड़ा हुआ है। इस दिन बहुत सारे जातक पीले रंग के कपड़े पहने हुए देखे जा सकते हैं।
----गुरू को उच्च कोटि का समझदार ग्रह भी कहा जाता है। यह हर परिस्थिति को विशाल दृष्टिकोण से देखने की क्षमता रखता है। ज्योतिष के अनुसार, गुरू सूर्य, मंगल एवं चंद्रमा के मित्र ग्रह माने जाते हैं जबकि बुध एवं शुक्र दुश्मन ग्रह हैं हालांकि, शनि के साथ गुरू के संबंध तटस्थ हैं। दूसरी ओर, यह भी बहुत रोचक बात है कि राहु एवं केतु भी गुरू के विरोधी माने जाते हैं, हालांकि, दोनों ग्रह नहीं हैं। गुरू की सकारात्मक शक्ति एेसी है कि उसके साथ कोर्इ भी शत्रुता की भावना रख सकता है। जैसे कि गुरू हर चीज को विस्तारपूर्वक एवं विशाल दायरे में प्रदर्शित करता है एवं जातक तर्क के साथ किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में सफल होते हैं। ज्योतिष के अनुसार यह गुरू का स्वभाव है।
----अगर गुरू अशुभ या नीच का है तो कुछ उपाय हैं, जिनसे गुरु ग्रह के दोषों को दूर किया जा सकता है
---हर गुरुवार विष्णु जी को बेसन के लड्डू का भोग लगाएं। इस उपाय से गुरु ग्रह के दोष दूर होते हैं।
---गुरुवार को गुरु ग्रह के लिए व्रत रखें। इस दिन पीले कपड़े पहनें। बिना नमक का खाना खाएं। भोजन में पीले रंग का पकवान जैसे बेसन के लड्डू, आम, केले आदि भी शामिल करें।
---- गुरु बृहस्पति की प्रतिमा या फोटो को पीले कपड़े पर विराजित करें और पूजा करें। पूजा में केसरिया चंदन, पीले चावल, पीले फूल और प्रसाद के लिए पीले पकवान या फल चढ़ाएं।
---- गुरु मंत्र का जप करें- ॐ बृं बृहस्पते नम:। मंत्र जप की संख्या कम से कम 108 होl

विविध भावों में लग्नेश

विविध भावों में लग्नेश

लग्न के बारे में हम जान ही चुके हैं। लग्न भाव में जो भी राशि होती है उसका स्वामी लग्नेश कहलाता है जैसे मेष राशि लग्न में हो तो मंगल लग्नेश बनेगा। लग्नेश की स्थिति जिस भाव में हो, उसके अनुसार कुंडली का फलादेश प्रभावित होता है। आइए विस्तार से जानें -

1. लग्नेश लग्न में हो तो अच्छा स्वास्थ्‍य रहता है। आत्मविश्वास रहता है, यश मिलता है, दीर्घायु होते हैं।
2. लग्नेश द्वितीय स्थान में होने से परिवार की उन्नति होती है, सुख-शांति रहती है। आर्थिक स्थिति अच्छी रहती है।
3. लग्नेश तृतीय स्थान में होतो छोटे-छोटे प्रवास होते हैं। लिखने-पढ़ने में रुचि रहती है, भाई-बहनों का सुख मिलता है।
4. लग्नेश चौथे स्थान में हो तो मन प्रसन्न रहता है, स्वभाव मौजी होता है। घर-वाहन का सुख मिलता है।
5. लग्नेश पंचम में होने पर शिक्षा में, कला में यश मिलता है। संतति सुख अच्छा रहता है।
6. लग्नेश षष्ठ भाव में हो तो स्वास्थ्‍य में परेशानी होती है। किए गए कार्य का यश नहीं मिलता। मामा-मौसी का प्रेम मिलता है।
7. लग्नेश सप्तम में होने पर मनचाहा विवाह होता है। व्यवसाय में यश मिलता है।
8. लग्नेश की अष्टम स्थिति जीवन को संघर्षमय बनाती है, आयु घटती है, स्वास्थ्य कष्ट बना रहता है।
9. लग्नेश नवम में हो तो आध्यात्मिक प्रगति होती है। भाग्य साथ देता है। यश-कीर्ति मिलती है। विदेश यात्रा होती है।
10. लग्नेश की दशम स्थिति नौकरी में पदोन्नति, राज्य से सम्मान, पितृ सौख्य, प्रतिष्ठा देती है।
11. लग्नेश एकादश में हो तो मित्र अच्छे मिलते हैं। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण रहता है, उनसे सहयोग मिलता है।
12. लग्नेश की व्यय में स्थिति जीवन को कष्टमय बनाती है। व्यक्ति अपराधी, व्यसनाधीन बन जाता है। शुभ ग्रहों का साथ हो तो परदेश गमन होता है, प्रगति होती है।

विशेष : लग्नेश पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो शुभ फल घटते हैं।

भाग्य को मजबूत करने के उपाय

भाग्य को मजबूत करने के उपाय---:

बुध भाग्येश हो तो यह उपाय करे :
तांबे का कड़ा हाथ में पहने, गणेश जी की आराधना करें, गाय को हरा चारा दीजिये।

शुक्र भाग्येश हो तो स्फटिक की माला से शुक्र के मत्र का जप करें, लक्ष्मी जी की आराधना करें।

चंद्र भाग्येश हो तो यह उपाय करे चंद्र के मत्र का जप करें, चांदी के गिलास में जल पिना चाहिए, शिव जी की आराधना करें।

गुरु भाग्येश हो तो विष्णु जी की आराधना करें, गाय को रोटी खिलाएं, पीली वस्तुओं का दान करना चाहिए ।

शनि भाग्येश हो तो काले वस्त्रों ,नीले वस्त्रों को कम पहनें, पीपल के वृक्ष के नीचे दीपक जलाएं, शनिवार को हनुमान चालीसा या सुन्दरकांड का पाठ करना चाहिए।

मंगल भाग्येश हो तो मजदूरों को मंगलवार को मिठाई खिलाना चाहिए, लाल मसूर का दान करना चाहिए, मंगलवार को सुंदर कांड का पाठ करना चाहिए।

सूर्य भाग्येश हो तो गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए। सूर्य को नियमित जल देना चाहिए, सूर्य मंत्र का जप करें।

शास्त्र कहता है कि भाग्य बड़ा प्रबल है, मगर पुरुषार्थ द्वारा भाग्य को को बदला जा सकता है। यानी जरुरत है दवा और दुआ के बीच तालमेल बैठाने की। यानि सही तरह से ज्योतिष विद्या को समझने की।

अन्दर की ज्योति और बाहर की ज्योति दोनों काम करें तो बात बनती है। पुरुषार्थ छोड़ें नहीं पूर्ण पुरुषार्थी होकर कार्य में लगें और साथ में प्रभु से आशीर्वाद भी मांगें। मेहनत करें, उपाए भी करते रहें उसकी (ईश्वर) दया जरूर होगी। कई व्यक्ति सोचते हैं कि अचानक ही कोई लाटरी लग जाएगी। किन्तु ऐसा है नही, इसलिए अपने अन्दर के उस दीपक को जलाइए जिसकी रोशनी में सारा संसार देवत्व की ओर जाता दिखाई दे।

भागवत महापुराण पवित्र ग्रंथ का यह सन्देश बड़ा ही अद्भुत है इसे अपने जीवन में अपनाएं। पुरुषार्थ यानि केवल हाथ जोड़ने से ही बात नहीं बनती पुरुषार्थ भी जरूरी है। हाथ जोड़े रहें, सिर झुका रहे, लेकिन हाथ पुरुषार्थ की ओर बढते रहें। दूसरी चीज है हिम्मत, हिम्मत कभी नहीं छोड़ना, साहस बनाए रखना।

जीवन में समस्याएं तो पग-पग हैं, निराश होकर न बैठें, साहस के साथ समस्या का सामना करें। भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि जीवन में जागना है, भागना नहीं।

 जो व्यक्ति आलस्य में सोया पड़ा है, उसके लिए कलियुग है, जिसने अंगड़ाई लेनी शुरू की उसके लिए द्वापर युग है, जो उठकर खड़ा हो गया, उसके लिए त्रेतायुग है और जो सही चीज़ को समझकर ईश्वर को साथ मानकर कार्य में लग गया उसके लिए सत्युग शुरू हो गया और उसका भाग्य सौभाग्य में बदल जाना निश्चित है।

दशम_भाव_में_बेठे_ग्रह

||#दशम_भाव_में_बेठे_ग्रह||                                                     कुंडली का दशम भाव जातक के कर्म, रोजगार, पद, प्रतिष्ठा, उच्च सफलता आदि फलो से सम्बंधित भाव है।इस भाव का बली और शुभ स्थिति में होना जातक के लिए राजाओ जैसा सुख-सुविधा, नाम, प्रतिष्ठा जैसे शुभ फल देता है।केंद्र त्रिकोण के ग्रहो का बली योग दशवे भाव में बनने से इस योग के फल बहुत शानदार और प्रबल शुभ होते है।सबसे महत्वपूर्ण जीवन में रोजगार की स्थिति अच्छा होना, अच्छा और उच्च स्तरीय जीवन जीना यह हर जातक की इच्छा होती है।जिसमे दसवे भाव की विशेष भूमिका होती है।इस भाव में गुरु सूर्य ग्रहो का नवमेश पंचमेश होकर बेठना पूर्वजो और पिता की तरह से समाज में नाम, रोजगार देने वाला होता है क्योंकि गुरु पूर्वजो का कारक है तो सूर्य पिता है।सूर्य मंगल दसवे भाव में विशेष बली होते है।इस भाव में यह दोनों ग्रह राजयोगकारक है।दसवाँ भाव कुंडली का चारो केन्द्रो में सबसे बड़ा केंद्र भाव है।योगकारक और शुभ ग्रहो का शुभ होकर इस भाव पर युति दृष्टि प्रभाव इस भाव के शुभ फल की वृद्धि करके सुखद फलो में वृद्धि करता है।जन्मकुंडली के दशम भाव का विस्तार से फल देखने के लिए दशमांश कुंडली देखी जाती है।यदि दशमांश कुंडली भी लग्न कुंडली के दशम भाव के साथ शुभ और बली होने से सोने पर सुहागा जैसे फल होते है।दशमांश कुंडली में विशेष रूप से दशमांश लग्न लग्नेश, दशम भाव दशमेश, ग्रहो में विशेष रूप से सूर्य, मंगल, बुध, शनि, दशमांश कुंडली के लग्न लग्नेश, दशम भाव दशमेश से सम्बन्ध् रखने वाले ग्रहो का शुभ होना पद, प्रतिष्ठा, आदि रोजगार दशम भाव से सम्बंधित फलो को अच्छा बनाता है।जिन जातको की कुंडली का दशम भाव दशमेश निर्बल, अस्त, पीड़ित, अशुभ जैसी आदि स्थिति में होने पर दशम भाव सम्बंधित फलो में परेशानी रहना, शुभ फल न मिलना जैसी स्थिति रहती है।दशम भाव, दशमेश और इनपर ग्रहो का अशुभ प्रभाव होने से उन ग्रहो की शांति करनी या करानी चाहिए, दशमेश और जिन योगकारक ग्रहो का दशम भाव पर प्रभाव है उनके बल में वृद्धि करके दशम भाव के शुभ फलो में वृद्धि की जा सकती है।

शश-योग

शश-योग



शश योग फलित ज्योतिष में एक बहुत महत्वपूर्ण योग है जो की पंच-महापुरुष योगों में से एक है शश योग शनि से सम्बंधित एक योग है जो जन्मकुंडली में शनि की एक विशेष स्थिति में होने पर बनता है तथा शश योग को बहुत शुभ परिणाम देने वाला भी माना गया है........ ज्योतिषीय नियमानुसार जन्मकुंडली में यदि शनि अपनी स्व या उच्च राशि (मकर, कुम्भ, तुला) में होकर केंद्र (पहला, चौथा, सातवां, दसवां भाव) में स्थित हो तो इसे "शश योग" कहते हैं इस प्रकार कुंडली में शश योग बनने पर शनि बहुत बली व मजबूत स्थिति में होता है जिससे यह योग व्यक्ति को बहुत शुभ परिणाम देता है। ......... ज्योतिष में शनि को कर्म, आजीविका, जनता, सेवक, नौकरी, तकनिकी कार्य, मशीन, प्राचीन वस्तु, दूरदर्शिता, गहन अध्यन, पाचन तंत्र, लोहा, स्टील आदि का कारक माना गया है......... यदि कुंडली में शश योग बन रहा हो तो यह आजीविका या करियर की दृष्टि से बहुत शुभ होता है ऐसा व्यक्ति अपने करियर या कर्म क्षेत्र में बहुत विशेष उन्नति प्राप्त करता है और अच्छे स्तर पर रहकर कार्य करता है और करियर में अच्छी सफलता मिलती है इसके अलावा शश योग बनने पर व्यक्ति गूढ़ सोच रखने वाला और दूरद्रष्टा होता है, तकनीकी कार्यों में ऐसे व्यक्ति की विशेष रुचि होती है, शश बनने पर व्यक्ति बहुत अनुशाशन प्रिय और प्रत्येक कार्य को कठोरता से पालन करने वाला होता है, प्राचीन वस्तुओं और गूढ़ ज्ञान में भी ऐसे व्यक्ति की विशेष रुचि होती है अपनी कर्म प्रधानता से ऐसा व्यक्ति अच्छा यश भी पाता है............... यदि कुंडली में शश योग बना हो तो ऐसे व्यक्ति को तकनीकी, मशीनों और वाहनों से जुड़े कार्यों में अच्छी सफलता मिलती है इसके अतिरिक्त केमिकल प्रोडक्ट्स, लोहा, स्टील, काँच, प्लास्टिक, पेट्रोल और पेट्रोलयम प्रोडक्ट्स से जुड़े कार्य में भी ऐसा व्यक्ति सफलता पाता है, शश योग को राजयोग की श्रेणी में भी रखा गया है यदि कुंडली में शश योग अच्छी प्रकार बन रहा हो और अन्य ग्रहों और पाप योगों से बाधित ना हो तो व्यक्ति अपने जीवन में विशेष सफलता और समृद्धि भी प्राप्त करता है। 

निसान्तान दंपतियों के लिए संतान प्राप्ति के सर्वोत्तम उपाय

निसान्तान दंपतियों के लिए संतान प्राप्ति के सर्वोत्तम उपाय

ज्योतिष शास्त्र विभिन्न प्रकार के कष्टों और दोषों को दूर करने के लिए विभिन्न प्रकार के उपाय, पूजा विधि और मंत्रों को जाप करने का सुझाव देता हैं। जिसके प्रयोग से जातक अपने जीवन के कष्टों को दूर करने का प्रयास करते हैं। ऐसा ही एक प्रभावी मंत्र है "श्री संतान गोपाल मंत्र"। कुंडली में संतान सुख का दोष होने पर इस मंत्र का जाप किया जाता है। माना जाता है कि इस मंत्र के सवा लाख जाप से ही पुण्य प्राप्त होता है। इस मंत्र का वर्णन हरिवंश पुराण में किया गया है।

बाल गोपाल श्रीकृष्ण के बाल रूप को कहा जाता है। भगवान श्री कृष्ण के बाल स्वरूप की पूजा करना निःसंतान दंपत्तियों के लिए बेहद शुभ माना जाता है।

श्री संतान गोपाल पूजा विधि

श्री संतान गोपाल पूजा का आरंभ गुरुवार या रविवार के दिन से ही करना चाहिए। इसके साथ ही इसके आठवें दिन इस पूजा का समापन कर दिया जाता है। इस प्रकार यह पूजा करीब आठ दिन तक चलती है। इस पूजा अनुष्ठान में १२५००० बार श्री संतान गोपाल मंत्र का जाप किया जाता है।

पूजा के पहले दिन करीब ७ या ५ पंडित शिवजी, भगवान कृष्ण और मां शक्ति के सामने बैठकर जातक के लिए १२५००० बार श्री संतान गोपाल मंत्र जाप करने का संकल्प लेते हैं। इसके बाद सभी देवी- देवताओं की पूजा कर अनुष्ठान का आरंभ करते हैं। पूजा के आरंभ में सभी पंडितों का नाम और गोत्र बोला जाता है और पुत्र रत्न की प्राप्ति की कामना करते हैं।

इसके बाद सभी पंडित जातक के लिए श्री संतान गोपाल मंत्र का जाप करना शुरू कर देते हैं। प्रत्येक पंडित इस मंत्र को आठ से दस घंटे तक प्रतिदिन जपता है ताकि निश्चित समय सीमा में १२५००० बार मंत्रों का जाप पूर्ण हो सके। मंत्रों के जाप के बाद भगवान श्रीकृष्ण जी की विधिवत रूप से पूजा करनी चाहिए। इसके बाद पंडित श्री संतान गोपाल मंत्र के पूर्ण होने का संकल्प करता है। इसके साथ ही इस पूजा का फल जातक को समर्पित करता है।

पूजा के अंत में देशी -घी, तिल, सामग्री और आम की लकड़ी द्वारा हवन कुंड जलाया जाता है तथा श्री संतान गोपाल मंत्र का जाप करते हुए घी, तिल, नारियल और सामग्री अग्नि को समर्पित किया जाता है। इसके बाद हवन कुंड के चारों तरफ जातक ५ या ७ चक्कर लगाता है।
संतान गोपाल मंत्र :-

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ।

इस मंत्र का बार रोज यथा सामर्थ्य जाप करे और इश्वर से संतान की कामना करे ..
अपने कमरे में श्री कृष्ण भगवान की बाल रूप की फोटो लगाये या लड्डू गोपाल को रोज माखन मिसरी की भोग अर्पण करे।

ग्रहों के अनुसार ही करें वस्तुओं का दान

 शास्त्रों के अनुसार पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए श्री संतान गोपाल मंत्र के जाप के बाद जातक को नवग्रहों से संबंधित विशेष वस्तुएं दान करनी चाहिए। यह हर जातक से लिए अलग- अलग होती हैं। इनमें सामान्यता जातक को चावल, गुड़, चीनी, नमक, गेहूं, दाल, तेल, तिल, जौ तथा कंबल, धन आदि दान करना चाहिए।

संतान प्राप्ति के अन्य सरल उपाय :-

ये उपाय प्राचीन ऋषि महर्षियों ने मानव कल्याण के लिए बताये है,जिन्हें मै आप लोंगो के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ,
हमारे ऋषि महर्षियों ने हजारो साल पहले ही संतान प्राप्ति के कुछ नियम और सयम बताये है ,संसार की उत्पत्ति पालन और विनाश का क्रम पृथ्वी पर हमेशा से चलता रहा है,और आगे चलता रहेगा। इस क्रम के अन्दर पहले जड चेतन का जन्म होता है,फ़िर उसका पालन होता है और समयानुसार उसका विनास होता है।

मनुष्य जन्म के बाद उसके लिये चार पुरुषार्थ सामने आते है,पहले धर्म उसके बाद अर्थ फ़िर काम और अन्त में मोक्ष, धर्म का मतलब पूजा पाठ और अन्य धार्मिक क्रियाओं से पूरी तरह से नही पोतना चाहिये,धर्म का मतलब मर्यादा में चलने से होता है,माता को माता समझना पिता को पिता का आदर देना अन्य परिवार और समाज को यथा स्थिति आदर सत्कार और सबके प्रति आस्था रखना ही धर्म कहा गया है,अर्थ से अपने और परिवार के जीवन यापन और समाज में अपनी प्रतिष्ठा को कायम रखने का कारण माना जाता है,काम का मतलब अपने द्वारा आगे की संतति को पैदा करने के लिये स्त्री को पति और पुरुष को पत्नी की कामना करनी पडती है,पत्नी का कार्य धरती की तरह से है और पुरुष का कार्य हवा की तरह या आसमान की तरह से है,गर्भाधान भी स्त्री को ही करना पडता है,वह बात अलग है कि पादपों में अमर बेल या दूसरे हवा में पलने वाले पादपों की तरह से कोई पुरुष भी गर्भाधान करले। धरती पर समय पर बीज का रोपड किया जाता है,तो बीज की उत्पत्ति और उगने वाले पेड का विकास सुचारु रूप से होता रहता है,और समय आने पर उच्चतम फ़लों की प्राप्ति होती है,अगर वर्षा ऋतु वाले बीज को ग्रीष्म ऋतु में रोपड कर दिया जावे तो वह अपनी प्रकृति के अनुसार उसी प्रकार के मौसम और रख रखाव की आवश्यकता को चाहेगा,और नही मिल पाया तो वह सूख कर खत्म हो जायेगा,इसी प्रकार से प्रकृति के अनुसार पुरुष और स्त्री को गर्भाधान का कारण समझ लेना चाहिये। जिनका पालन करने से आप तो संतानवान होंगे ही आप की संतान भी आगे कभी दुखों का सामना नहीं करेगा…
कुछ राते ये भी है जिसमे हमें सम्भोग करने से बचना चाहिए .. जैसे अष्टमी, एकादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमवाश्या .चन्द्रावती ऋषि का कथन है कि लड़का-लड़की का जन्म गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष के दायां-बायां श्वास क्रिया, पिंगला-तूड़ा नाड़ी, सूर्यस्वर तथा चन्द्रस्वर की स्थिति पर निर्भर करता है।गर्भाधान के समय स्त्री का दाहिना श्वास चले तो पुत्री तथा बायां श्वास चले तो पुत्र होगा।

यदि आप पुत्र प्राप्त करना चाहते हैं और वह भी गुणवान, तो हम आपकी सुविधा के लिए हम यहाँ माहवारी के बाद की विभिन्न रात्रियों की महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं।

मासिक स्राव के बाद ४' ६ ,८ १०, १३, १४ एवं १६ वीं रात्रि के गर्भाधान से पुत्र तथा ४, ७, ९, ११, १३ एवं १५ वीं रात्रि के गर्भाधान से कन्या जन्म लेती है।
१- चौथी रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र अल्पायु और दरिद्र होता है।
२- पाँचवीं रात्रि के गर्भ से जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ लड़की पैदा करेगी।
३- छठवीं रात्रि के गर्भ से मध्यम आयु वाला पुत्र जन्म लेगा।
४- सातवीं रात्रि के गर्भ से पैदा होने वाली कन्या बांझ होगी।
५- आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र ऐश्वर्यशाली होता है।
६- नौवीं रात्रि के गर्भ से ऐश्वर्यशालिनी पुत्री पैदा होती है।

७- दसवीं रात्रि के गर्भ से चतुर पुत्र का जन्म होता है।
८- ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से चरित्रहीन पुत्री पैदा होती है।
९- बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरुषोत्तम पुत्र जन्म लेता है।
१०- तेरहवीं रात्रि के गर्म से वर्णसंकर पुत्री जन्म लेती है।
११- चौदहवीं रात्रि के गर्भ से उत्तम पुत्र का जन्म होता है।
१२- पंद्रहवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती पुत्री पैदा होती है।
१३- सोलहवीं रात्रि के गर्भ से सर्वगुण संपन्न, पुत्र पैदा होता है।

सहवास से निवृत्त होते ही पत्नी को दाहिनी करवट से १० से १५  मिनट लेटे रहना चाहिए, तुरंत नहीं उठना चाहिए।




 इच्छानुसार संतान प्राप्त करने के उपाय
विवाहोपरांत दंपति को संतान प्राप्ति की प्रबल उत्कंठा होती है. आज जब लडकियां भी पढ लिखकर काफ़ी उन्नति कर रही हैं तो भी अधिकांश दंपतियों की दबे छुपे मन में पुत्र संतान ही प्राप्त करने की इछ्छा रखते हैं. यों तो संतान योग जातक की जन्मकुंडली में जैसा भी विद्यमान हो उस अनुसार प्राप्त हो ही जाता है फ़िर भी कुछ प्रयासों से मनचाही संतान प्राप्त की जा सकती है. यानि प्रयत्न पूर्वक कर्म करने से बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है.

योग्य पुत्र प्राप्त करने के इच्छुक दंपति अगर निम्न नियमों का पालन करें तो अवश्य ही उत्तम पुत्र प्राप्त होगा. स्त्री को हमेशा पुरूष के बायें तरफ़ सोना चाहिये. कुछ देर बांयी करवट लेटने से दायां स्वर और दाहिनी करवट लेटने से बांया स्वर चालू हो जाता है. इस स्थिति में जब पुरूष का दांया स्वर चलने लगे और स्त्री का बांया स्वर चलने लगे तब संभोग करना चाहिये. इस स्थिति में अगर गर्भादान हो गया तो अवश्य ही पुत्र उत्पन्न होगा. स्वर की जांच के लिये नथुनों पर अंगुली रखकर ज्ञात किया जा सकता है.

योग्य कन्या संतान की प्राप्ति के लिये स्त्री को हमेशा पुरूष के दाहिनी और सोना चाहिये. इस स्थिति मे स्त्री का दाहिना स्वर चलने लगेगा और स्त्री के बायीं तरफ़ लेटे पुरूष का बांया स्वर चलने लगेगा. इस स्थिति में अगर गर्भादान होता है तो निश्चित ही सुयोग्य और गुणवती कन्या संतान प्राप्त होगी.

अगर किसी विशेष कारण से गर्भधारण नहीं हो रहा हो तो कुण्डली के अनुसार उपाय करें।

Thursday, September 28, 2017

राहु की महादशा में विभिन्न ग्रहो के अंतरदशा का।उचित फलित

राहु मूलतः छाया ग्रह है, फिर भी उसे एक पूर्ण ग्रह के समान ही माना जाता है। यह आद्रा,स्वाति एवं शतभिषा नक्षत्र का स्वामी है।
राहु की दृष्टि कुंडली के पंचम, सप्तम और नवम भाव पर पड़ती है। जिन भावों पर राहु की दृष्टि का प्रभाव पड़ता है, वे राहु की महादशा में अवश्य प्रभावित होते हैं।अभी नवरात्र में राहु पीड़ा जनित जातक अपनी कुंडली के अनुसार उचित उपाय करके समाधान पा सकते है।कुछ साधारण फलित करते है राहु दशा में विभिन्न ग्रहो के अंतरदशा का।उचित फलित के लिए नक्षत्र भाव और दृष्टि महत्वपूर्ण है।अपनी कुंडली के अनुसार फलित जानकार कर उपाय करे तो उत्तम परिणाम मिलते है।

राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है। राहु में राहु की अंतर्दशा का काल 2 वर्ष 8 माह और 12 दिन का होता है। इस अवधि में राहु से प्रभावित जातक को अपमान और बदनामी का सामना करना पड़ सकता है। विष और जल के कारण पीड़ा हो सकती है। विषाक्त भोजन, से स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। इसके अतिरिक्त अपच, सर्पदंश, परस्त्री या पर पुरुष गमन की आशंका भी इस अवधि में बनी रहती है। अशुभ राहु की इस अवधि में जातक के किसी प्रिय से वियोग, समाज में अपयश, निंदा आदि की संभावना भी रहती है। किसी दुष्ट व्यक्ति के कारण उस परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है।

राहु की महादशा में गुरु की अंतर्दशा की यह अवधि दो वर्ष चार माह और 24 दिन की होती है।
राक्षस प्रवृत्ति के ग्रह राहु और देवताओं के गुरु बृहस्पति का यह संयोग सुखदायी होता है। जातक के मन में श्रेष्ठ विचारों का संचार होता है और उसका शरीर स्वस्थ रहता है। धार्मिक कार्यों में उसका मन लगता है। यदि कुंडली में गुरु अशुभ प्रभाव में हो, राहु के साथ या उसकी दृष्टि में हो तो उक्त फल का अभाव रहता है।

राहु में शनि की अंतदर्शा का काल 2 वर्ष 10 माह और 6 दिन का होता है। इस अवधि में परिवार में कलह की स्थिति बनती है। तलाक भाई, बहन और संतान से अनबन, नौकरी में या अधीनस्थ नौकर से संकट की संभावना रहती है। शरीर में अचानक चोट या दुर्घटना के दुर्योग, कुसंगति आदि की संभावना भी रहती है। साथ ही वात और पित्त जनित रोग भी हो सकता है।
दो अशुभ ग्रहों की दशा-अंतर्दशा कष्ट कारक हो सकती है।

राहु की महादशा में बुध की अंतर्दशा की अवधि 2 वर्ष 3 माह और 6 दिन की होती है। इस समय धन और पुत्र की प्राप्ति के योग बनते हैं। राहु और बुध की मित्रता के कारण मित्रों का सहयोग प्राप्त होता है। साथ ही कार्य कौशल और चतुराई में वृद्धि होती है। व्यापार का विस्तार होता है और मान, सम्मान यश और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
राहु की महादशा में केतु की यह अवधि शुभ फल नहीं देती है। एक वर्ष और 18 दिन की इस अवधि के दौरान जातक को सिर में रोग, ज्वर, शत्रुओं से परेशानी, शस्त्रों से घात, अग्नि से हानि, शारीरिक पीड़ा आदि का सामना करना पड़ता है। रिश्तेदारों और मित्रों से परेशानियां व परिवार में क्लेश भी हो सकता है।
राहु की महादशा में शुक्र की प्रत्यंतर दशा पूरे तीन वर्ष चलती है। इस अवधि में शुभ स्थिति में दाम्पत्य जीवन में सुख मिलता है। वाहन और भूमि की प्राप्ति तथा भोग-विलास के योग बनते हैं। यदि शुक्र और राहु शुभ नहीं हों तो शीत संबंधित रोग, बदनामी और विरोध का सामना करना पड़ सकता है।

राहु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा की अवधि 10 माह और 24 दिन की होती है, जो अन्य ग्रहों की तुलना में सर्वाधिक कम है। इस अवधि में शत्रुओं से संकट, शस्त्र से घात, अग्नि और विष से हानि, आंखों में रोग, राज्य या शासन से भय, परिवार में कलह आदि हो सकते हैं। सामान्यतः यह समय अशुभ प्रभाव देने वाला ही होता है।

राहु में चंद्र
एक वर्ष 6 माह की इस अवधि में जातक को असीम मानसिक कष्ट होता है। इस अवधि में जीवन साथी से अनबन, तलाक या मृत्यु भी हो सकती है। लोगों से मतांतर, आकस्मिक संकट एवं जल जनित पीड़ा की संभावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त पशु या कृषि की हानि, धन का नाश, संतान को कष्ट और मृत्युतुल्य पीड़ा भी हो सकती है।

राहु की महादशा में मंगल की अंतर्दशा का यह समय एक वर्ष 18 दिन का होता है। इस काल में शासन व अग्नि से भय, चोरी, अस्त्र शस्त्र से चोट, शारीरिक पीड़ा, गंभीर रोग, नेत्रों को पीड़ा आदि हो सकते है। इस अवधि में पद एवं स्थान परिवर्तन तथा भाई को या भाई से पीड़ा की संभावना भी रहती है।

क्या आपकी कुण्डली में महाधनी बनने के योग है?

क्या आपकी कुण्डली में महाधनी बनने के योग है?
वर्तमान में आर्थिक युग का दौर चल रहा है। धन के बगैर इस भौतिक समाज में जीवन का गुजारा करना असम्भव है। महान सन्त कबीर दास जी ने क्या खूब कहा है। सांई इतना दीजिये जामे कुटम्ब समाय, मैं भी भूखन न रहॅू पाहुन भी भूखा न जाय। जब कबीर दास जैसे महान सन्त ने जीवन में धन की आवश्यकता का भखान किया है, तो फिर आम आदमी बेचारा बिना अर्थ के अपने जीवन की नैय्या को पार भला कैसे लगा पायेगा ?
प्रत्येक मनुष्य की आकांक्षा रहती है कि वह अपने जीवन में अधिक से अधिक धन दौलत कमा कर ऐशो आराम से अपना जीवन व्यतीत कर सकें। किन्तु सबके नसीब में ऐसा होता नहीं है। कर्म करके दो वक्त की रोटी का जुगाड़ किया जा सकता पर लजीज व्यजंनो का स्वाद चखने के लिए भाग्य का प्रबल होना जरूरी है।
आइये हम आपको बताते है कि क्या आपकी कुण्डली में कुछ ऐसे योग है जो आपको विपुल धनवान बना सकते है।
जन्मपत्री में दूसरा भाव धन का कारक होता है। इसके अतिरिक्त पंचम, नवम, चतुर्थ, दशम भाव व एकादश भाव भी लक्ष्मी प्राप्ति के योगों का निर्माण करते है। प्रथम, पंचम, नवम, चतुर्थ, दशम और सप्तम भाव की भूमिका भी धन प्राप्ति में महत्वपूर्ण होती है। दूसरा भाव यानि धन के कारक भाव की भूमिका विशेष होती है। वैसे तो विभिन्न प्रकार के योग जैसे राजयोग, गजकेसरी योग, महापुरूष, चक्रवर्ती योग आदि में मां लक्ष्मी की विशेष कृपा या विपुल धन प्राप्त होने के संकेत देते ही है। लेकिन आधुनिक युग में उच्च पदों पर आसीन होने से ये योग लक्ष्मी प्राप्ति या महाधनी योग किस प्रकार घटित होते है ?
ज्योतिष के अनुसार यदि निम्न प्रकार के सम्बन्ध धनेश, नवमेश, लग्नेश, पंचमेश और दशमेश आदि के मध्य बनें तो जातक महाधनी कहा जा सकता है।
1- लग्न और लग्नेश द्वारा धन योगः
यदि लग्नेश धन भाव में और धनेश लग्न भाव में स्थित हो तो यह योग विपुल धन योग का निर्माण करता है। इसी प्रकार से लग्नेश की लाभ भाव में स्थिति या लाभेश का धन भाव, लग्न या लग्नेश से किसी भी प्रकार का सबंध जातक को अधिक मात्रा में धन दिलाता है। लेकिन शर्त यह है कि इन भावों यो भावेशों पर नीच या शत्रु ग्रहों की दृष्टि न पड़ती हो। ऐसा होने से योग खण्डित हो सकता है।
2- धन भाव या धनेश द्वारा धन योगः
यदि धनेश लाभ स्थान में हो और लाभेश धन भाव में यानि लाभेश धनेश का स्थान परिवर्तन यो हो तो जातक महाधनी होता है। यदि धनेश या लाभेश केन्द्र में या त्रिकोण में मित्र भावस्थ हो तथा उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो जातक धनवान होगा। यदि दोनों ही केन्द्र स्थान या त्रिकोण में युति कर लें तो यह अति शक्तिशाली महाधनी योग हो जाता है। इस योग जातक धनेश या लाभेश की महादशा, अन्तर्दशा या प्रत्यन्तर्दशा में में धन कमाता है।
3- तृतीय भाव या भावेश द्वारा धन योगः
यदि तीसरे भाव का स्वामी लाभ घर में हो या लाभेश और धनेश में स्थान परिवर्तन हो तो जातक अपने पराक्रम से धन कमाता है। यह योग क्रूर ग्रहों के मध्य हो तो अधिक शक्तिशाली माना जायेगा। इस योग में सौम्य ग्रह कम फलदायी होते है।
4- चतुर्थ भाव या भावेश द्वारा धन योगः
यदि चतुर्थेश और धनेश का स्थान परिवर्तन योग हो या धनेश और सुखेश धन या सुख भाव में परस्पर युति बना रहें हो तो जातक बड़े-2 वाहनों और प्रापर्टी का मालिक होता है। ऐसा जातक अपनी माता से विरासत में बहुत धन की प्राप्ति करता है।
5- पंचम भाव या पंचमेश द्वारा धन प्राप्तिः
पंचम भाव का स्वामी यदि धन, नवम अथवा लाभ भाव में हो तो भी जातक धन होता है। यदि पंचमेश, धनेश और नवमेश लाभ भाव में अथवा पंचमेश धनेश और लाभेश नवम भाव में अथवा पंचमेश, धनेश और नवम भाव में युत हो तो जातक महाधनी होता है। यदि पंचमेश, धनेश, नवमेश और लाभेश चारों की युति हो तो सशक्त महाधनी योग होता है। किन्तु यह योग बहुत कम निर्मित होता है।
6- षष्ठ भाव और षष्ठेश द्वारा धन योगः
षष्ठेश के लाभ या धन भाव में होने से शत्रु दमन द्वारा धन की प्राप्ति होती है। ऐसे योग में धनेश का षष्ठमस्थ होना शुभ नहीं होता है। यह योग कम ही घटित होता है।
7- सप्तम और सप्तमेश द्वारा धन की प्राप्तिः
यदि सप्तमेश धन भावस्थ हो या धनेश सप्तमस्थ हो अथवा सप्तमेश नवमस्थ या लाभ भावस्थ हो तो जातक ससुराल पक्ष से धन प्राप्त करता है। ऐसे जातको का विवाह के बाद भाग्योदय होता है। ऐसे जातक किसी धनकुबेर के दामाद बनते है।
8- नवम भाव और नवमेश द्वारा धन योगः
नवमेश यदि धन या लाभ भाव में हो या धनेश नवमस्थ हो अथवा नवमेश और धनेश युक्त होकर द्वितीयस्थ, लाभस्थ, चतुर्थस्थ या नवमस्थ हो तो जातक महाभाग्यशाली होते है। किसी भी कार्य में हाथ डालकर अपार धन प्राप्त कर सकता है। यह युति यदि भाग्य में ही बने तो और अधिक बलवान हो जायेगा।
9- दशम और दशमेश द्वारा धन योगः
धनेश और दशमेश का परिवर्तन, युति आदि होने से पर जातक पिता या राजा द्वारा या अपने कार्य विशेष द्वारा धन प्राप्त करता है। ऐसा जातक धनवान राजनेता होता है।
10- लाभ और लाभेश द्वारा धन योगः
लाभेश का धन भावस्थ, पंचमस्थ या नवमस्थ होना या इन भावों के स्वामियों की केन्द्रों या त्रिकोण स्थानों में युति से जातक महाधनी होता है।
नोटः इन सभी योगों में एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि ग्रहों की युति, स्थान परिवर्तन आदि स्थितियों में शुभ दृष्टि या मित्र दृष्टि हो तो योग के फलित होने की सम्भावना प्रबल हो जाती है। इन भावों या भावेशों का बलवान होना भी आवश्यक होता है। कई बार अनेक कुण्डलियों में उपर बतायें गये योग होने के बावजूद भी जातक का जीवन सामान्य होता है। ऐसा तभी होगा जब भाव या भावेश कमजोर होंगे, ग्रह मृतावस्था में होंगे या फिर पाप ग्रहों की दृष्टि से योग खण्डित होंगे।

गोचर फल

गोचर फल
🌔🌕🌔
सभी ग्रह चलायमान हैं.सभी ग्रहों की अपनी रफ्तार है कोई ग्रह तेज चलने वाला है तो कोई मंद गति से चलता है.ग्रहों की इसी गति को गोचर कहते हैं .ग्रहों का गोचर ज्योतिषशास्त्र में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है.ग्रहों के गोचर के आधार पर ही ज्योतिष विधि से फल का विश्लेषण किया जाता है.प्रत्येक ग्रह जब जन्म राशि में पहुंचता है अथवा जन्म राशि से दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें, नवें,दशवें, ग्यारहवें या बारहवें स्थान पर होता है तब अपने गुण और दोषों के अनुसार व्यक्ति पर प्रभाव डालता है .गोचर में ग्रहों का यह प्रभाव गोचर का फल कहलता है.शनि, राहु, केतु और गुरू धीमी गति वाले ग्रह हैं अत: यह व्यक्ति के जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डालते हैं इसलिए गोचर में इनके फल का विशेष महत्व होता है.अन्य ग्रह की गति तेज होती है अत: वे अधिक समय तक प्रभाव नहीं डालते हैं।

सूर्य का गोचर फल:
〰〰〰〰〰〰
गोचर में सूर्य जब तृतीय, षष्टम, दशम और एकादश भाव में आता है तब यह शुभ फलदायी होता है.इन भावों में सूर्य का गोचरफल सुखदायी होता है.इन भावों में सूर्य के आने पर स्वास्थ्य अनुकूल होता है.मित्रों से सहयोग, शत्रु का पराभव एवं धन का लाभ होता है.इस स्थिति में संतान और जीवन साथी से सुख मिलता है साथ ही राजकीय क्षेत्र से भी शुभ परिणाम मिलते हैं.सूर्य जब प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, अष्टम, नवम एवं द्वादश में पहुंचता है तो मानसिक अशांति, अस्वस्थता, गृह कलह, मित्रों से अनबन रहती है.इन भावों में सूर्य का गोचर राजकीय पक्ष की भी हानि करता है

चन्द्र का गोचर फल:
〰〰〰〰〰〰
गोचर में चन्द्रमा जब प्रथम, तृतीय, षष्टम, सप्तम, दशम एवं एकादश में आता है तब यह शुभ फलदेने वाला होता है .इन भावों में चन्द्रमा के आने पर व्यक्ति को स्त्री सुख, नवीन वस्त्र, उत्तम भोजन प्राप्त होता है.चन्द्र का इन भावों में गोचर होने पर स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है.इन भावों को छोड़कर अन्य भावों में चन्द्रमा का गोचर अशुभ फलदायी होता है.मानसिक क्लेश, अस्वस्थता, स्त्री पीड़ा व कार्य बाधित होते हैं।

मंगल का गोचर फल
〰〰〰〰〰〰
मंगल को अशुभ ग्रह कहा गया है लेकिन जब यह तृतीय या षष्टम भाव से गोचर करता है तब शुभ फल देता है .इन भावों में मंगल का गोचर पराक्रम को बढ़ाता है, व शत्रुओं का पराभव करता है.यह धन लाभ, यश कीर्ति व आन्नद देता है.इन दो भावों को छोड़कर अन्य भावो में मंगल पीड़ा दायक होता है.तृतीय और षष्टम के अलावा अन्य भावों में जब यह गोचर करता है तब बल की हानि होती है, शत्रु प्रबल होंते हैं.अस्वस्थता, नौकरी एवं कारोबार में बाधा एवं अशांति का वातावरण बनता है।

बुध का गोचर फल
〰〰〰〰〰〰
गोचर वश जब बुध द्वितीय, चतुर्थ, षष्टम अथवा एकादश में आता है तब बुध का गोचर फल व्यक्ति के लिए सुखदायी होता है इस गोचर में बुध पठन पाठन में रूचि जगाता है, अन्न-धन वस्त्र का लाभ देता है.कुटुम्ब जनों से मधुर सम्बन्ध एवं नये नये लोगों से मित्रता करवाता है.अन्य भावों में बुध का गोचर शुभफलदायी नहीं होता है.गोचर में अशुभ बुध स्त्री से वियोग, कुटुम्बियों से अनबन, स्वास्थ्य की हानि, आर्थिक नुकसान, कार्यों में बाधक होता है।

बृहस्पति का गोचर फल
〰〰〰〰〰〰〰
बृहस्पति को शुभ ग्रह कहा गया है.यह देवताओं का गुरू है और सात्विक एवं उत्तम फल देने वाला लेकिन गोचर में जब यह द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम, एकादश भाव में आता है तभी यह ग्रह व्यक्ति को शुभ फल देता है अन्य भावों में बृहस्पति का गोचर अशुभ प्रभाव देता है .उपरोक्त भावों में जब बृहस्पति गोचर करता है तब मान प्रतिष्ठा, धन, उन्नति, राजकीय पक्ष से लाभ एवं सुख देता है.इन भावों में बृहस्पति का गोचर शत्रुओं का पराभव करता है.कुटुम्बियों एवं मित्रों का सहयोग एवं पदोन्नति भी शुभ बृहस्पति देता है.उपरोक्त पांच भावों को छोड़कर अन्य भावों में जब बृहस्पति का गोचर होता है तब व्यक्ति को मानसिक पीड़ा, शत्रुओं से कष्ट, अस्वस्थता व धन की हानि होती है.गोचर में अशुभ होने पर बृहस्पति सम्बन्धों में कटुता, रोजी रोजगार मे उलझन और गृहस्थी में बाधक बनता है।

शुक्र का गोचर में फल
〰〰〰〰〰〰〰
आकाश मंडल में शुक्र सबसे चमकीला ग्रह है जो भोग विलास एवं सुख का कारक ग्रह माना जाता है.शुक्र जब प्रथम, द्वितीय, पंचम, अष्टम, नवम एवं एकादश भाव से गोचर करता है तब यह शुभ फलदायी होता है .इन भावों में शुक्र का गोचर होने पर व्यक्ति को भौतिक एवं शारीरिक सुख मिलता है.पत्नी एवं स्त्री पक्ष से लाभ मिलता है.आरोग्य सुख एवं अन्न-धन वस्त्र व आभूषण का लाभ देता है.हलांकि प्रथम भाव में जब यह गोचर करता है तब अपने गुण के अनुसार यह सभी प्रकार का लाभ देता है परंतु अत्यधिक भोग विलास की ओर व्यक्ति को प्रेरित करता है.अन्य भावों में शुक्र का गोचर अशुभ फलदायीगोचर में अशुभकारी शुक्र होने पर यह स्वास्थ्य एवं धन की हानि करता है.स्त्री से पीड़ा, जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोग, शत्रु बाधा रोजी रोजगार में कठिनाईयां गोचर में अशुभ शुक्र का फल होता है.द्वादश भाव में जब शुक्र गोचर करता है तब अशुभ होते हुए भी कुछ शुभ फल दे जाता है।

शनि का गोचर फल
〰〰〰〰〰〰
शनि को अशुभ ग्रह कहा गया है.यह व्यक्ति को कष्ट और परेशानी देता है लेकिन जब यह गोचर में षष्टम या एकादश भाव में होता है तब शुभ फल देता है .नवम भाव में शनि का गोचर मिला जुला फल देता है.अन्य भावों में शनि का गोचर पीड़ादायक होता है.गोचर में शुभ शनि अन्न, धन और सुख देता, गृह सुख की प्राप्ति एवं शत्रुओं का पराभव भी शनि के गोचर में होता है.संतान से सुख एवं उच्चाधिकारियों से सहयोग भी शनि का शुभ गोचर प्रदान करता है.शनि का अशुभ गोचर मानसिक कष्ट, आर्थिक कष्ट, रोजी-रोजगार एवं कारोबार में बाधा सहित स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

राहु एवं केतु का गोचर फल
〰〰〰〰〰〰〰〰
राहु और केतु छाया ग्रह हैं जिन्हें शनि के समान ही अशुभकारी ग्रह माना गया है.ज्योतिषशास्त्र के अनुसार गोचर में राहु केतु उसी ग्रह का गोचर फल देते हैं जिस ग्रह के घर में जन्म के समय इनकी स्थिति होती है.तृतीय, षष्टम एवं एकादश भाव में इनका गोचर शुभ फलदायी होता है।

गोचर ग्रहों का जातक के वर्तमान जीवन में सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है

ज्योतिष कक्षा
📚📓📚📓📚
गोचर ग्रहों का जातक पर
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰
गोचर ग्रहों से यह मतलब होता है की वर्तमान में आसमान में ग्रह किन राशियों में भ्रमण कर रहे है. गोचर ग्रहों का अध्ययन जातक की चन्द्र राशि से किया जाता है . गोचर ग्रहों का जातक के वर्तमान जीवन में सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है .यदि गोचर मे सूर्य जनम राशी से इन भावो में हो तो इसका फल इस प्रकार होता है .

प्रथम भाव में
〰〰〰〰
 इस भाव में होने पर रक्त में कमी की सम्भावना होती है . इसके अलावा गुस्सा आता है पेट में रोग और कब्ज़ की परेशानी आने लगती है . नेत्र रोग , हृदय रोग ,मानसिक अशांति ,थकान और सर्दी गर्मी से पित का प्रकोप होने लगता है .इसके आलवा फालतू का घूमना , बेकार का परिश्रम , कार्य में बाधा ,विलम्ब ,भोजन का समय में न मिलना , धन की हानि , सम्मान में कमी होने लगती है परिवार से दूरियां बनने लगती है .

द्वितीय भाव में
〰〰〰〰〰
 इस भाव में सूर्य के आने से धन की हानि ,उदासी ,सुख में कमी , असफ़लता, धोका .नेत्र विकार , मित्रो से विरोध , सिरदर्द , व्यापार में नुकसान होने लगता है।

तृतीय भाव में
〰〰〰〰
इस भाव में सूर्य के फल अच्छे होते है .यहाँ जब सूर्य होता है तो सभी प्रकार के लाभ मिलते है . धन , पुत्र ,दोस्त और उच्चाधिकारियों से अधिक लाभ मिलता है . जमीन का भी फायदा होता है . आरोग्य और प्रसस्नता मिलती है . शत्रु हारते हैं . समाज में सम्मान प्राप्त होता है।

चतुर्थ भाव
〰〰〰
इस भाव में सूर्य के होने से ज़मीन सम्बन्धी , माता से , यात्रा से और पत्नी से समस्या आती है . रोग , मानसिक अशांति और मानहानि के कष्ट आने लगते हैं।

पंचम भाव
〰〰〰
 इस भाव में भी सूर्य परेशान करता है .पुत्र को परेशानी , उच्चाधिकारियों से हानि और रोग व् शत्रु उभरने लगते है।

छठे भाव में
〰〰〰〰
इस भाव में सूर्य शुभ होता है . इस भाव में सूर्य के आने पर रोग ,शत्रु ,परेशानियां शोक आदि दूर भाग जाते हैं।

सप्तम भाव में
〰〰〰〰
इस भाव में सूर्य यात्रा ,पेट रोग , दीनता , वैवाहिक जीवन के कष्ट देता है स्त्री – पुत्र बीमारी से परेशान हो जाते हैं .पेट व् सिरदर्द की समस्या आ जाती है . धन व् मान में कमी आ जाती है।

अष्टम भाव में
〰〰〰〰
इस में सूर्य बवासीर , पत्नी से परेशानी , रोग भय , ज्वर , राज भय , अपच की समस्या पैदा करता है।

नवम भाव मे
〰〰〰〰
इसमें दीनता ,रोग ,धन हानि , आपति , बाधा , झूंठा आरोप , मित्रो व् बन्धुओं से विरोध का सामना करन पड़ता है।

दशम भाव में
〰〰〰〰
 इस भाव में सफलता , विजय , सिद्धि , पदोन्नति , मान , गौरव , धन , आरोग्य , अच्छे मित्र की प्राप्ति होती है।

एकादश भाव में
〰〰〰〰〰
इस भाव में विजय , स्थान लाभ , सत्कार , पूजा ,वैभव ,रोगनाश ,पदोन्नति , वैभव पितृ लाभ . घर में मांगलिक कार्य संपन्न होते हैं।

द्वादश भाव में
〰〰〰〰
 इस भाव में सूर्य शुभ होता है .सदाचारी बनता है , सफलता दिलाता है अच्छे कार्यो के लिए , लेकिन पेट , नेत्र रोग , और मित्र भी शत्रु बन जाते हैं।

चन्द्र की गोचर भाव के फल
〰〰〰〰〰〰〰〰
प्रथम भाव में👉 जब चन्द्र प्रथम भाव में होता है तो जातक को सुख , समागम , आनंद व् निरोगता का लाभ होता है . उत्तम भोजन ,शयन सुख , शुभ वस्त्र की प्राप्ति होती है।

द्वितीय भाव👉 इस भाव में जातक के सम्मान और धन में बाधा आती है .मानसिक तनाव ,परिवार से अनबन , नेत्र विकार , भोजन में गड़बड़ी हो जाती है . विद्या की हानि , पाप कर्मी और हर काम में असफलता मिलने लगती है।

तृतीय भाव में👉 इस भाव में चन्द्र शुभ होता है .धन , परिवार ,वस्त्र , निरोग , विजय की प्राप्ति शत्रुजीत मन खुश रहता है , बंधु लाभ , भाग्य वृद्धि ,और हर तरह की सफलता मिलती है।

चतुर्थ भाव में👉 इस भाव में शंका , अविश्वास , चंचल मन , भोजन और नींद में बाधा आती है .स्त्री सुख में कमी , जनता से अपयश मिलता है , छाती में विकार , जल से भय होता है।

पंचम भाव में👉 इस भाव में दीनता , रोग ,यात्रा में हानि , अशांत , जलोदर , कामुकता की अधिकता और मंत्रणा शक्ति में न्यूनता आ जाती है।

छठे भाव में👉 इस भाव में धन व् सुख लाभ मिलता है . शत्रु पर जीत मिलती है .निरोय्गता ,यश आनंद , महिला से लाभ मिलता है।

सप्तम भाव में👉 इस भाव में वाहन की प्राप्ति होती है. सम्मान , सत्कार ,धन , अच्छा भोजन , आराम काम सुख , छोटी लाभ प्रद यात्रायें , व्यापर में लाभ और यश मिलता है।

अष्टम भाव में👉 इस भाव में जातक को भय , खांसी , अपच . छाती में रोग , स्वांस रोग , विवाद ,मानसिक कलह , धन नाश और आकस्मिक परेशानी आती है।

नवम भाव में👉 बंधन , मन की चंचलता , पेट रोग ,पुत्र से मतभेद , व्यापार हानि , भाग्य में अवरोध , राज्य से हानि होती है।

दशम भाव में👉 इस में सफलता मिलती है . हर काम आसानी से होता है . धन , सम्मान , उच्चाधिकारियों से लाभ मिलता है . घर का सुख मिलता है .पद लाभ मिलता है . आज्ञा देने का सामर्थ्य आ जाता है।

एकादश भाव में👉 इस भाव में धन लाभ , धन संग्रह , मित्र समागम , प्रसन्नता , व्यापार लाभ , पुत्र से लाभ , स्त्री सुख , तरल पदार्थ और स्त्री से लाभ मिलता है।

द्वादश भाव में👉 इस भाव में धन हानि ,अपघात , शारीरिक हानियां होती है।

मंगल ग्रह का प्रभाव गोचर में इस प्रकार से होता है.
〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰〰
प्रथम भाव में👉 जब मंगल आता है .तो रोग्दायक हो कर बवासीर ,रक्तविकार ,ज्वर , घाव , अग्नि से डर , ज़हर और अस्त्र से हानि देता है।

द्वितीय भाव में👉 यहाँ पर मंगल से पित ,अग्नि ,चोर से खतरा ,राज्य से हानि , कठोर वाणी के कारण हानि , कलह और शत्रु से परेशानियाँ आती है।

तृतीय भाव👉 इस भाव में मंगल के आ जाने से चोरो और किशोरों के माध्यम से धन की प्राप्ति होती है शत्रु डर जाते हैं . तर्क शक्ति प्रबल होती है. धन , वस्त्र , धातु की प्राप्ति होती है . प्रमुख पद मिलता है।

चतुर्थ भाव में👉 यहाँ पर पेट के रोग ,ज्वर , रक्त विकार , शत्रु पनपते हैं .धन व् वस्तु की कमी होने लगती है .गलत संगती से हानि होने लगती है . भूमि विवाद , माँ को कष्ट , मन में भय , हिंसा के कारण हानि होने लगती है।

पंचम भाव👉 यहाँ पर मंगल के कारण शत्रु भय , रोग , क्रोध , पुत्र शोक , शत्रु शोक , पाप कर्म होने लगते हैं . पल पल स्वास्थ्य गिरता रहता है।

छठा भाव👉 यहाँ पर मंगल शुभ होता है . शत्रु हार जाते हैं . डर भाग जाता हैं . शांति मिलती है. धन – धातु के लाभ से लोग जलते रह जाते हैं।

सप्तम भाव👉  इस भाव में स्त्री से कलह , रोग ,पेट के रोग , नेत्र विकार होने लगते हैं।

अष्टम भाव में👉 यहाँ पर धन व् सम्मान में कमी और रक्तश्राव की संभावना होती है।

नवम भाव👉  यहाँ पर धन व् धातु हानि , पीड़ा , दुर्बलता , धातु क्षय , धीमी क्रियाशीलता हो जाती हैं।

दशम भाव👉 यहाँ पर मिलाजुला फल मिलता हैं।

एकादश भाव👉 यहाँ मंगल शुभ होकर धन प्राप्ति ,प्रमुख पद दिलाता हैं।

द्वादश भाव👉 इस भाव में धन हानि , स्त्री से कलह नेत्र वेदना होती है।

बुध का गोचर में प्रभाव
〰〰〰〰〰〰〰
प्रथम भाव में👉  इस भाव में चुगलखोरी अपशब्द , कठोर वाणी की आदत के कारण हानि होती है .कलह बेकार की यात्रायें . और अहितकारी वचन से हानियाँ होती हैं।

द्वीतीय भाव में👉 यहाँ पर बुध अपमान दिलाने के बावजूद धन भी दिलाता है।

तृतीय भाव👉  यहाँ पर शत्रु और राज्य भय दिलाता है . ये दुह्कर्म की ओर ले जाता है .यहाँ मित्र की प्राप्ति भी करवाता है।

चतुर्थ भाव्👉  यहाँ पर बुध शुभ होकर धन दिलवाता है .अपने स्वजनों की वृद्धि होती है।

पंचम भाव👉 इस भाव में मन बैचैन रहता है . पुत्र व् स्त्री से कलह होती है।

छठा भाव👉 यहाँ पर बुध अच्छा फल देता हैं. सौभाग्य का उदय होता है . शत्रु पराजित होते हैं . जातक उन्नतशील होने लगता है . हर काम में जीत होने लगते हैं।

सप्तम भाव👉 यहाँ पर स्त्री से कलह होने लगती हैं ।

अष्टम भाव👉 यहाँ पर बुध पुत्र व् धन लाभ देता है .प्रसन्नता भी देता है ।

नवम👉 यहाँ पर बुध हर काम में बाधा डालता हैं ।

दशम भाव👉 यहाँ पर बुध लाभ प्रद हैं. शत्रुनाशक ,धन दायक ,स्त्री व् शयन सुख देता है ।

एकादश भाव में👉 यहाँ भी बुध लाभ देता हैं . धन , पुत्र , सुख , मित्र ,वाहन , मृदु वाणी प्रदान करता है।

द्वादश भाव👉 यहाँ पर रोग ,पराजय और अपमान देता है।

गुरु का गोचर प्रभाव
〰〰〰〰〰〰
 प्रथम भाव में👉 इस भाव में धन नाश ,पदावनति , वृद्धि का नाश , विवाद ,स्थान परिवर्तन दिलाता हैं ।

द्वितीय भाव में👉 यहाँ पर धन व् विलासता भरा जीवन दिलाता है ।

तृतीय भाव में👉 यहाँ पर काम में बाधा और स्थान परिवर्तन करता है।

चतुर्थ भाव में👉 यहाँ पर कलह , चिंता पीड़ा दिलाता है।

पंचम भाव👉 यहाँ पर गुरु शुभ होता है .पुत्र , वहां ,पशु सुख , घर ,स्त्री , सुंदर वस्त्र आभूषण , की प्राप्ति करवाता हैं।

छथा भाव में👉 यहाँ पर दुःख और पत्नी से अनबन होती है।

सप्तम भाव👉 शैया , रति सुख , धन , सुरुचि भोजन , उपहार , वहां .,वाणी , उत्तम वृद्धि करता हैं।

अष्टम भाव👉 यहाँ बंधन ,व्याधि , पीड़ा , ताप ,शोक , यात्रा कष्ट , मृत्युतुल्य परशानियाँ देता है।

नवम भाव में👉  कुशलता ,प्रमुख पद , पुत्र की सफलता , धन व् भूमि लाभ , स्त्री की प्राप्ति होती है।

दशम भाव में👉 स्थान परिवर्तन में हानि , रोग ,धन हानि होती है।

एकादश भाव👉 यहाँ शुभ होता हैं . धन ,आरोग्य और अच्छा स्थान दिलवाता है।

द्वादश भाव में👉 यहाँ पर मार्ग भ्रम पैदा करता है।

गोचर शुक्र का प्रभाव
〰〰〰〰〰〰
प्रथम भाव में👉 जब शुक्र यहाँ पर अथोता है तब सुख ,आनंद ,वस्त्र , फूलो से प्यार , विलासी जीवन ,सुंदर स्थानों का भ्रमण ,सुगन्धित पदार्थ पसपसंद आते है .विवाहिक जीवन के लाभ प्राप्त होते हैं।

द्वितीय भाव में👉 यहाँ पर शुक्र संतान , धन , धान्य , राज्य से लाभ , स्त्री के प्रति आकर्षण और परिवार के प्रति हितकारी काम करवाता हैं।

तृतीय भाव👉 इस जगह प्रभुता ,धन ,समागम ,सम्मान ,समृधि ,शास्त्र , वस्त्र का लाभ दिलवाता हैं .यहाँ पर नए स्थान की प्राप्ति और शत्रु का नास करवाता हैं।

चतुर्थ भाव👉 इस भाव में मित्र लाभ और शक्ति की प्राप्ति करवाता हैं।

पंचम भाव👉 इस भाव में गुरु से लाभ ,संतुष्ट जीवन , मित्र –पुत्र –धन की प्राप्ति करवाता है . इस भाव में शुक्र होने से भाई का लाभ भी मिलता है।

छठा भाव👉 इस भाव में शुक्र रोग , ज्वर ,और असम्मान दिलवाता है .
सप्तम भाव – इसमें सम्बन्धियों को नास्ता करवाता हैं।

अष्टम भाव👉 इस भाव में शुक्र भवन , परिवार सुख , स्त्री की प्राप्ति करवाता है।

नवम भाव👉 इसमें धर्म ,स्त्री ,धन की प्राप्ति होती हैं .आभूषण व् वस्त्र की प्राप्ति भी होती है।

दशम भाव👉 इसमें अपमान और कलह मिलती है।

एकादश भाव👉 इसमें मित्र ,धन ,अन्न ,प्रशाधन सामग्री मिलती है।

द्वादश भाव👉इसमें धन के मार्ग बनते हिया परन्तु वस्त्र लाभ स्थायी नहीं होता हैं।

शनि की गोचर दशा
〰〰〰〰〰〰
प्रथम भाव👉 इस भाव में अग्नि और विष का डर होता है. बंधुओ से विवाद , वियोग , परदेश गमन , उदासी ,शरीर को हानि , धन हानि ,पुत्र को हानि , फालतू घोमना आदि परेशानी आती है।

द्वितीय भाव👉इस भाव में धन का नाश और रूप का सुख नाश की ओर जाता हैं।

तृतीय भाव👉 इस भाव में शनि शुभ होता है .धन ,परवर ,नौकर ,वहां ,पशु ,भवन ,सुख ,ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है .सभी शत्रु हार मान जाते हैं।

चतुर्थ भाव👉 इस भाव में मित्र ,धन ,पुत्र ,स्त्री से वियोग करवाता हैं .मन में गलत विचार बनने लगते हैं .जो हानि देते हैं।

पंचम भाव👉 इस भाव में शनि कलह करवाता है जिसके कारण स्त्री और पुत्र से हानि होती हैं।

छठा भाव👉 ये शनि का लाभकारी स्थान हैं. शत्रु व् रोग पराजित होते हैं .सांसारिक सुख मिलता है।

सप्तम भाव👉 कई यात्रायें करनी होती हैं . स्त्री – पुत्र से विमुक्त होना पड़ता हैं।

अष्टम भाव👉 इसमें कलह व् दूरियां पनपती हैं।

नवम भाव👉 यहाँ पर शनि बैर , बंधन ,हानि और हृदय रोग देता हैं।

दशम भाव👉 इस भाव में कार्य की प्राप्ति , रोज़गार , अर्थ हानि , विद्या व् यश में कमी आती हैं।

एकादश भाव👉 इसमें परस्त्री व् परधन की प्राप्ति होई हैं।

द्वादश भाव👉 इसमें शोक व् शारीरिक परेशानी आती हैं।

शनि की २,१,१२ भावो के गोचर को साढ़ेसाती और ४ ,८ भावो के गोचर को ढ़ैया कहते हैं .
शुभ दशा में गोचर का फल अधिक शुभ होता हैं .अशुभ गोचर का फल परेशान करता हैं .इस उपाय द्वारा शांत करवाना चाहिए .अशुभ दस काल मेशुब फल कम मिलता हैं .अशुभ फल ज्यादा होता हैं।

पूजा कैसे करें👉 जब सूर्य और मंगल अशुभ हो तो लाल फूल , लाल चन्दन ,केसर , रोली , सुगन्धित पदार्थ से पूजा करनी चाहिए . सूर्य को जलदान करना चाहिए .शुक्र की पूजा सफ़ेद फूल, व् इत्र के द्वारा दुर्गा जी की पूजा करनी चाहिए . शनि की पूजा काले फूल ,नीले फूल व् काली वस्तु का दान करके शनि देव की पूजा करनी चाहिए . गुरु हेतु पीले फूल से विष्णु देव की पूजा करनी चाहिए .बुध हेतु दूर्वा घास को गाय को खिलाएं।

गोचर ग्रहों का फल : अष्टक वर्ग एवं गोचर

गोचर ग्रहों का फल : अष्टक वर्ग एवं गोचर
🌔🌓🌒🌔🌓🌒🌔🌓🌒🌔🌓🌒🌔🌓🌒
गोचर शब्द "गम" धातु से बना है, जिसका अर्थ है "चलने वाला"। "चर" शब्द का अर्थ है "गतिमय होना"। इस प्रकार "गोचर" का अर्थ हुआ-"निरन्तर चलने वाला"।
ब्रह्माण में स्थित ग्रह अपनी-अपनी धुरी पर अपनी गति से निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं। इस भ्रमण के दौरान वे एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं। ग्रहों के इस प्रकार राशि परिवर्तन करने के उपरांत दूसरी राशि में उनकी स्थिति को ही "गोचर" कहा जाता है। प्रत्येक ग्रह का जातक की जन्मराशि से विभिन्न भावों "गोचर" भावानुसार शुभ-अशुभ फल देता है।

भ्रमण काल-
〰🌼🌼〰
सूर्य,शुक्र,बुध का भ्रमण काल १ माह, चंद्र का सवा दो दिन, मंगल का ५७ दिन, गुरू का १ वर्ष,राहु-केतु का डेढ़ वर्ष व शनि का भ्रमण का ढ़ाई वर्ष होता है अर्थात ये ग्रह इतने समय में एक राशि में रहते हैं तत्पश्चात ये अपनी राशि-परिवर्तन करते हैं।

विभिन्न ग्रहों का "गोचर" अनुसार फल
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰
१. सूर्य-
सूर्य जन्मकालीन राशि से ३,६,१० और ११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में सूर्य का फल अशुभ देता है।
२. चंद्र-
चंद्र जन्मकालीन राशि से १,३,६,७,१०,व ११ भाव में शुभ तथा ४, ८, १२ वें भाव में अशुभ फल देता है।
३. मंगल-
मंगल जन्मकालीन राशि से ३,६,११ भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
४. बुध-
बुध जन्मकालीन राशि से २,४,६,८,१० और ११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
५. गुरू-
गुरू जन्मकालीन राशि से २,५,७,९ और ११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
६. शुक्र-
शुक्र जन्मकालीन राशि से १,२,३,४,५,८,९,११ और १२ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
७. शनि-
शनि जन्मकालीन राशि से ३,६,११ भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
८. राहु-
राहु जन्मकालीन राशि से ३,६,११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
९. केतु-
केतु जन्मकालीन राशि से १,२,३,४,५,७,९ और ११ वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।

भूमि भवन संबंधित सर्व ज्योतिषीय मुहूर्त

भूमि भवन संबंधित सर्व ज्योतिषीय मुहूर्त
〰〰🌼〰〰🌼🌼〰〰🌼〰〰
भूमि क्रय-विक्रय करने का मुहूर्त
〰〰🌼〰🌼🌼〰🌼〰〰
घर बनाने हेतु , प्रॉपर्टी कार्य हेतु , जमीन क्रय-विक्रय कार्य हेतु या कृषि कार्य हेतु क्रय-विक्रय हेतु
अश्विनी मृगशिरा पुनर्वसु पुष्य हस्त चित्रा स्वाति रेवती नक्षत्र शुभ होती है।

गृह निर्माण हेतु नींव खोदने का मुहूर्त
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰
जब सूर्य सिंह राशि में हो ,कन्या में या तुला में हो तो
   अग्निकोण [ दक्षिण पूर्व ] से नीव खोदना आरम्भ करना चाहिए।

जब सूर्य वृश्चिक धनु या मकर राशि से ऊपर हो
तो ईशानकोण [ उत्तर-पूर्व ] से नींव को खोदना चाहिए।

जब सूर्य कुम्भ मीन व मेष में हो तो
नींव वायव्यकोण [ उत्तर-पश्चिम ] से खोदना चाहिए।

जब सूर्य वृषभ मिथुन और कर्क में हो तो
नीव नैश्रृयकोण [ दक्षिण-पश्चिम ] से शुरू करे।

जब सूर्य 5/6/7 राशि में हो तो राहु मुख उत्तर पीठ पश्चिम और पूँछ नैश्रत्यकोण में होता है।

ऐसी दशा में अग्निकोण [ दक्षिण-पूर्व ] से खोदना शुरू करे।

इसीप्रकार
सूर्य की स्थिति को देखते हुए
राहु मुख को छोड़ कर
उपयुक्त दिशा से ही नींव खोदना चाहिए।

विशेष जानकारी
〰〰🌼〰〰
जब भूमि सो रही हो तो नीव नही खोदना चाहिए।

जब सूर्य नयी राशि में प्रवेश करता है [ संक्रांति ] उससे 5,7,9,10, 21 और 24वें दिन भूमि शयन की स्थिति में होती है अथवा जब किसी दिन चन्द्रमा का नक्षत्र सूर्य के नक्षत्र से 5,7,9,12,19,26वां हो तो भूमि उस दिन भी सोती है।

गृह निर्माण हेतु नींव खोदने का मुहूर्त
〰〰🌼〰〰🌼〰〰🌼〰〰
नींव खुदाई हेतु अधोमुखी नक्षत्र
मूला अश्लेषा विशाखा कृतिका पूर्वाफाल्गुनी पूर्वाषाढ़ा पूर्वभाद्रपद भरणी और मघा शुभ है।
शनि या मंगल के नक्षत्र नही लेने चाहिए।

नीव खोदने की तिथि
〰〰🌼🌼〰〰
इस कार्य हेतु मंगलवार के अलावा सभी शुभ दिन होता है।

Sunday, September 24, 2017

वैदिक ज्योतिष के दो महत्वपूर्ण योग

वैदिक ज्योतिष के दो महत्वपूर्ण योग *
*महाभाग्य योग : वैदिक ज्योतिष में महाभाग्य योग की प्रचलित परिभाषा के अनुसार यदि किसी पुरुष का जन्म दिन के समय का हो तथा उसकी जन्म कुंडली में लग्न अर्थात पहला घर, सूर्य तथा चन्द्रमा, तीनों ही विषम राशियों जैसे कि मेष, मिथुन, सिंह आदि में स्थित हों तो ऐसी कुंडली में महाभाग्य योग बनता है जो जातक को आर्थिक समृद्धि, सरकार में कोई शक्तिशाली पद, प्रभुत्व, प्रसिद्धि तथा लोकप्रियता आदि जैसे शुभ फल प्रदान कर सकता है। इसी प्रकार यदि किसी स्त्री का जन्म रात के समय का हो तथा उसकी जन्म कुंडली में लग्न, सूर्य तथा चन्द्रमा तीनों ही सम राशियों अर्थात वृष, कर्क, कन्या आदि में स्थित हों तो ऐसी स्त्री की कुंडली में महाभाग्य योग बनता है जो उसे उपर बताए गए शुभ फल प्रदान कर सकता है।*
*वैदिक ज्योतिष में वर्णित अधिकतर योगों का निर्माण पुरुष तथा स्त्री जातकों की कुंडलियों में एक समान नियमों से ही होता है जबकि महाभाग्य योग के लिए ये नियम पुरुष तथा स्त्री जातकों के लिए विपरीत हैं। इसका कारण यह है कि सूर्य दिन में प्रबल रहने वाला पुरुष ग्रह है तथा चन्द्रमा रात्रि में प्रबल रहने वाला एक स्त्री ग्रह है और किसी पुरुष की कुंडली में दिन के समय का जन्म होने से, लग्न, सूर्य तथा चन्द्रमा सबके विषम राशियों में अर्थात पुरुष राशियों में स्थित हो जाने से कुंडली में पुरुषत्व की प्रधानता बहुत बढ़ जाती है तथा ऐसी कुंडली में सूर्य भी बहुत प्रबल हो जाते हैं जिसके कारण पुरुष जातक को लाभ मिलता है। वहीं पर किसी स्त्री जातक का जन्म रात में होने से, कुंडली में लग्न, सूर्य तथा चन्द्रमा तीनों के विषम राशियों अर्थात स्त्री राशियों में होने से कुंडली में चन्द्रमा तथा स्त्री तत्व का प्रभाव बहुत बढ़ जाता है जिसके कारण ऐसे स्त्री जातकों को लाभ प्राप्त होता है।*
*किन्तु महाभाग्य योग का फल केवल उपर दिये गए नियमों से ही निश्चित कर लेना उचित नहीं है तथा किसी कुंडली में इस योग के निर्माण तथा फलादेश से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण विषयों के बारे में विचार कर लेना भी अति आवश्यक है। किसी भी कुंडली में महाभाग्य योग बनाने के लिए कुंडली में सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों का शुभ होना अति आवश्यक है क्योंकि इन दोनों में से किसी एक ग्रह के अशुभ होने की स्थिति में महाभाग्य योग या तो कुंडली में बनेगा ही नहीं अन्यथा ऐसे महाभाग्य योग का बल बहुत क्षीण होगा जिससे जातक को अधिक लाभ प्राप्त नहीं हो पायेगा जबकि इन दोनों ही ग्रहों के किसी कुंडली में अशुभ होने की स्थिति में ऐसी कुंडली में महाभाग्य योग बिल्कुल भी नहीं बनेगा बल्कि ऐसी स्थिति में कुंडली में कोई अशुभ योग भी बन सकता है जिसके चलते जातक को अपने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।*
*यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि कई बार किसी कुंडली में ऐसे अशुभ सूर्य तथा चन्द्रमा का संयोग होने पर भी जातक बहुत धन कमा सकता है अथवा किसी सरकारी संस्था में कोई शक्तिशाली पद भी प्राप्त कर सकता है किन्तु ऐसा जातक सामान्यतया अवैध कार्यों के माध्यम से धन कमाता है तथा अपने पद और शक्ति का धन कमाने के लिए दुरुपयोग करता है जिसके कारण ऐसे जातक का पद तथा धन स्थायी नहीं रह पाता तथा उसे अपने पद तथा धन से हाथ धोना पड़ सकता है तथा अपयश अथवा बदनामी का सामना भी करना पड़ सकता है। इसलिए कुंडली में महाभाग्य योग बनाने के लिए कुंडली में सूर्य तथा चन्द्रमा का शुभ होना अति आवश्यक है।*
*इसके अतिरिक्त किसी कुंडली में सूर्य तथा चन्द्रमा के बल तथा स्थिति का भी भली भांति निरीक्षण करना अति आवश्यक है क्योंकि इनके अनुकूल अथवा प्रतिकूल होने से भी महाभाग्य योग के शुभ फलों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए पुरुष जातकों की जन्म कुंडली में सूर्य के मेष राशि में स्थित होने से बनने वाला महाभाग्य योग सूर्य के तुला राशि में स्थित होने से बनने वाले महाभाग्य योग की अपेक्षा कहीं अधिक बलशाली होगा क्योंकि मेष में सूर्य उच्च के तथा तुला में नीच के हो जाते हैं।*
*इसी प्रकार स्त्री जातकों की जन्म कुंडली में चन्द्रमा के वृष राशि में स्थित होने से बनने वाला महाभाग्य योग चन्द्रमा के वृश्चिक राशि में स्थित होने से बनने वाले महाभाग्य योग की अपेक्षा कहीं अधिक बलशाली होगा क्योंकि वृष में चन्द्रमा उच्च के तथा वृश्चिक में नीच के हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुंडली में सूर्य तथा चन्द्रमा की विभिन्न घरों में स्थिति तथा कुंडली में सूर्य तथा चन्द्रमा पर पड़ने वाले अन्य शुभ अशुभ ग्रहों के प्रभाव का भी भली भांति अध्ययन करना चाहिए तथा कुंडली में उपस्थित अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों का भी निरीक्षण करना चाहिए और इसके पश्चात ही महाभाग्य योग के निर्माण तथा फलादेश को निश्चित करना चाहिए।*
*पुष्कल योग : वैदिक ज्योतिष में पुष्कल योग की प्रचलित परिभाषा के अनुसार यदि किसी कुंडली में चन्द्रमा लग्नेश अर्थात पहले घर के स्वामी ग्रह के साथ हो तथा यह दोनों जिस राशि में स्थित हों उस राशि का स्वामी ग्रह केन्द्र के किसी घर में स्थित होकर अथवा किसी राशि विशेष में स्थित होने से बलवान होकर लग्न को देख रहा हो तथा लग्न में कोई शुभ ग्रह उपस्थित हो तो ऐसी कुंडली में पुष्कल योग बनता है जो जातक को आर्थिक समृद्धि, व्यवसायिक सफलता तथा सरकार में प्रतिष्ठा तथा प्रभुत्व का पद प्रदान कर सकता है।*
*अन्य शुभ योगों की भांति ही पुष्कल योग के भी किसी कुंडली में बनने तथा शुभ फल प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि पुष्कल योग का किसी कुंडली में निर्माण करने वाले सभी ग्रह शुभ हों तथा इनमें से एक अथवा एक से अधिक ग्रहों के अशुभ होने की स्थिति में कुंडली में बनने वाला पुष्कल योग बलहीन हो जाता है अथवा ऐसे अशुभ ग्रहों का संयोग कुंडली में पुष्कल योग न बना कर कोई अशुभ योग भी बना सकता है। इसके अतिरिक्त कुंडली में इन सभी ग्रहों का बल तथा स्थिति आदि का भी भली भांति निरीक्षण करना चाहिए तथा इन सभी ग्रहों पर कुंडली के अन्य शुभ अशुभ ग्रहों के प्रभाव का भी अध्ययन करना चाहिए तथा तत्पश्चात ही किसी कुंडली में पुष्कल योग के बनने या न बनने का तथा इस योग के बनने की स्थिति में इसके शुभ फलों का निर्णय करना चाहिए।*

लग्नगत सूर्य के फल

लग्नगत सूर्य के  फल

(१)  लग्न मे सू्र्य यदि पुरूष राशि मे स्थित हो तो कष्ट प्रद होता है| किन्तु यदि लग्न मे स्त्री राशि मे होतो जातक को सांसारिक सुख प्राप्ति होती है।

(२) लग्न मे धनु राशि का सूर्य जातक को विद्वान , विधिवेता,कुशल अभिनेता,बैरिस्टर,न्यायधीश या उच्च पद पर आसीन किसी सरकारी कामकाज से जुडा होता है किन्तु स्त्री का सुख प्राप्त न होना अनेक स्त्रीयो से संबंध होना ,संतान सुख न होना ,ऐसी समस्याये सामने आती है।

(३) लग्न मे कर्क राशि का सूर्य जातक को धनवान बनाता है| स्त्री सुख प्रदान करता है तथा संतान युक्त होता है| परन्तु संसारिक जीवन मे मान सम्मान कम होता है| कोई विशेस अधिकार प्राप्त नही होते।

(४) दक्षिणायन का सूर्य (कर्क से धनु तक) जातक को भाग्यशाली बनाता है| इन राशियो मे सूर्य विश्व का विकास करता है| दक्षिणायन का सूर्य जातक मे दैविय वृत्तियो का समावेश रखता है।

(५) उत्तरायण का सूर्य (मकर से मिथन तक) होने पर जातक मे वाद विवाद की आदत होती है| ऐसा जातक अपना अधिकार प्राप्त करने की ओर प्रवृत होता है।

(६) लग्न का सूर्य जातक को चिडचिडे स्वभाव का ,जिद्दी तथा बेइमान लोगो के साथ जुडने वाला बनाता है| जिसके कारण सराकर का दंड भी भोगता है।

(७)  यदि लग्न मे सूर्य हो तो जातक के ऊपर यदि किसी प्रकार का कोई शासकीय धन शेष हो या सरकार द्वारा संचालित किसी प्रतिष्ठान से संबंधित धन राशि शेष हो तो उसे वापस करने मे देरी करता है| कई बार लालची या ईष्यालु अधिकारियो द्वारा धन संबंधी आरोप भी लगाया जाता है।

(८) यदि लग्न मे सूर्य हो जातक को सरकार द्वारा किसी प्रकार की पूछताछ या अभियोग का पात्र बनना पडता है।

(९) लग्न का सूर्य जातक को राजनीती मे सक्रीय बनाता है| या फिर अधिकारियो से अच्छे संबंध रखत है।

(१०)  लग्न का सूर्य जातक को क्षीण काय अर्थात दुर्बल शरीर वाला व स्त्रीयो के कारण बदनाम होता है| जातक की संतान दुष्ट होती है| या कठिनाई से संतान प्राप्ति होती है| यदि तुला राशि का सूर्य हो तो जातक बाजारू स्त्रीयो मे रूची रखता है| जातक सम्मान से रहित ,ईष्या करने वाला और कमजोर आँखो वाला या बुरी नजर वाला होता है।

(११) यदि लग्न मे सूर्य हो तो जातक घने बाल वाला ,कार्य मे आलस्य युक्त बुद्धि वाला ,क्रोधी ,उग्र ,ऊँची देह वाला अर्थात लम्बा ,अंहकार ,शुष्क दृष्टी वाला ,कठोर देहधारी ,क्षमा से रहित तथा निर्दयी होता है|

धनु लग्न

धनु लग्न
यह लग्न देव गुरु बृहस्पति का है यह एक अग्नितत्व लग्न है दो स्वभाव लग्न है इस लग्न में तपस्या है खुद को जलाना है ज्ञान की आग में , धनु लग्न में गुरु जहा लग्नेश होता है वहा मन का स्वामी भी होता है यह लोग विशाल मन के होते है इनका मन और तन दोनों बिलकुल साफ़ सुथरे होते है जैसे यह ऊपर से होते है वैसे यह अंदर से होते है, बे वजह किसी का दिल नहीं दुखाते यह लोग ज्ञान से इनको बहुत प्यार होता है और ज्ञानके पीछे यह हमेशा भागते है सबको प्यार और रेस्पेक्ट देते है पर क्रोध और गुस्साइनके अंदर बहुत होता है क्योकि गुरु तत्व होने के कारण यह गलत बात बर्दाश्त नहीं कर पाते है।
 गुरु लग्नेश और सुखेश है इस लगन के लिए गुरु शुभ है अगर गुरु लगन में ही हो तो कुंडली के बहुत सारे दोष दूर कर देता है केंद्र या त्रिकोण में यह बहुत अच्छे शुभ फल प्रदान करता है मान सम्मान उच्च लोगो के साथ सबंध अगरयह शुभ प्रभाव में है तो।
शनि 2 भाव और 3 का स्वामी है शनि 2 का फल ना करके 3 का ज्यादा करेगा स्थांतरण फलित करेगा शनि मारक है और3 भाव अशुभ है अपनी वाणी पर इनका कंट्रोल होना बहुत जरुरी है क्योकि वाणीका स्वामी शनि है अगर शनि कुंडली में खराब हुआ वाणी दोष देगा बोलने पर इनका संयम बहुतजरुरी है शनि अगर कुंडली मेंअच्छी जगह है 11 भाव में उच्च है या 2 भाव मेंहै शुक्र शनि की युति है यह धनदायहोती है
शनि 2 भाव और शुक्र 11 भाव का स्वामी है धनेश और लाभेश के साथ होनेकी वजह से शनि की महादशा में धनिकी प्राप्ति वो भी मेहनत के साथ होसकती है शनि की दशा में अक्सरपरेशानी का सामना भी करना पड़ सकता हैअगर शनि कुंडली में खराब हुआ तो इनकीबेसिक एजुकेशन खराब हो सकती है। शनिकी दशा प्लेसमेंट कैसी है शनि की इस बात पर निर्धारित है।मंगल 12 भाव और 5 का स्वामी है मंगल 12 भाव काफल न करके 5 भाव का फल जायदा करेगा मंगल शुभ है इनके लिए मंगल की दशा में अच्छी एजुकेशनअच्छी संतान विदेश यात्राओ का लाभ मिलता है मंगल लग्नेश गुरु का मित्र भी है त्रिकोण का स्वामी भी है इसकी दशा शुभ है अगर यह सही जगह और शुभ प्रभाव में है।शुक 6 और 11 भाव स्वामी है 6 से 6 होने के कारण11 भाव से भी वो ही फल प्राप्त होते है जो 6 से होते है  शुक्र रोग चोट एक्सीडेंट यह गुरु का लग्न है शुक्र इसकी छवि बिगाड़ने की कोशिश करता है परस्त्री से दूर रहे गलत सम्बन्ध नहीं बनाये औरतो से क्योकि शुक्र रोगेश है इनको hiv की बीमारी जल्दी लगसकती है शरीर में पथरी होनायोन रोग होना शुक्र की दशा शुभ नहीं है।बुध 10 भाव और 7 भाव का स्वामी है केन्द्राधिपतिदोष इसको लग जाता है शुभ गृह केंद्र के स्वामीहोकर अपनी शुभता को कम कर देते है पर अगरइनकी प्लेसमेंट अच्छी हो यह बहुत अच्छा फल भी प्रदान कर सकते है त्रिकोण के
स्वामी के साथ सूर्य और बुध की युतिराजयोग कारक होती है सूर्य 9 भाव कास्वामी बुध कर्मेश होता है केंद्र त्रिकोण केस्वामी है यह राजयोग देती है अगर लग्न नवम और दशम भाव में यह युति हो विशेष फल दायकहोती है।चंद्रमा 8 का स्वामी है चंद्रमा को अष्टमेश होनेका.दोष नहीं लगता चंद्रमा देवता गृह है देव गृहकभी भी आयु का नुक्सान नहीं करते पर चंद्रमा पर अशुभ प्रभाव नहीं होना चहिये शुक्र चंद्रमा की युति बीमारिया या फिर आयु की हानि कर सकती है
सूर्य 9 भाव का स्वामी है सूर्य अगरअच्छी जगह है शुभ प्रभाव में है।अपनी दशा में भाग्य उदय करता है भाग्य को राजसी बना देता है सरकार से फायदा करवाता है सरकारी नौकरी दिलवाता है उच्च लोगो से सम्बन्ध बनवाता है इसकी दशा में भाग्य उदय होता है सूर्य शुभ है इनके लिए।

शनि की महादशा में पीपल की पूजा क्यों ?

*शनि की महादशा में पीपल की पूजा क्यों ?*
जब किसी इंसान पर शनिदेव की महादशा चल रही होती है तो उसे पीपल की पूजा का उपाय जरूर बताया जाता है। कई बार मन में यह सवाल उठता है कि ब्रम्हांड के सबसे शक्तिशाली और क्रूर ग्रह शनि का क्रोध मात्र पीपल वृक्ष की पूजा करने से कैसे शान्त हो जाता है।?
आज हम आपको बताने जा रहे हैं शनि और पीपल से सम्बंधित वह पौराणिक कथा जिसके बारे में आपने शायद ही पहले कभी सुना हो।
पुराणों की माने तो एक बार त्रेता युग मे अकाल पड़ गया था । उसी युग मे एक कौशिक मुनि अपने बच्चो के साथ रहते थे । बच्चो का पेट न भरने के कारण मुनि अपने बच्चो को लेकर दूसरे राज्य मे रोज़ी रोटी के लिए जा रहे थे ।
रास्ते मे बच्चो का पेट न भरने के कारण मुनि ने एक बच्चे को रास्ते मे ही छोड़ दिया था । बच्चा रोते रोते रात को एक पीपल के पेड़ के नीचे सो गया था तथा पीपल के पेड़ के नीचे रहने लगा था। तथा पीपल के पेड़ के फल खा कर बड़ा होने लगा था। तथा कठिन तपस्या करने लगा था ।
एक दिन ऋषि नारद वहाँ से जा रहे थे । नारद जी को उस बच्चे पर दया आ गयी तथा नारद जी ने उस बच्चे को पूरी शिक्षा दी थी तथा विष्णु भगवान की पूजा का विधान बता दिया था।
अब बालक भगवान विष्णु की तपस्या करने लगा था । एक दिन भगवान विष्णु ने आकर बालक को दर्शन दिये तथा विष्णु भगवान ने कहा कि हे बालक मैं आपकी तपस्या से प्रसन्न हूँ । आप कोई वरदान मांग लो।
बालक ने विष्णु भगवान से सिर्फ भक्ति और योग मांग लिया था । अब बालक उस वरदान को पाकर पीपल के पेड़ के नीचे ही बहुत बड़ा तपस्वी और योगी हो गया था।
एक दिन बालक ने नारद जी से पूछा कि हे प्रभु हमारे परिवार की यह हालत क्यो हुई है । मेरे पिता ने मुझे भूख के कारण छोड़ दिया था और आजकल वो कहा है।
नारद जी ने कहा बेटा आपका यह हाल शानिमहाराज ने किया है । देखो आकाश मे यह शनैश्चर दिखाई दे रहा है । बालक ने शनैश्चर को उग्र दृष्टि से देखा और क्रोध से उस शनैश्चर को नीचे गिरा दिया । उसके कारण शनैश्चर का पैर टूट गया । और शनि असहाय हो गया था।
शनि का यह हाल देखकर नारद जी बहुत प्रसन्न हुए । नारद जी ने सभी देवताओ को शनि का यह हाल दिखाया था । शनि का यह हाल देखकर ब्रह्मा जी भी वहाँ आ गए थे । और बालक से कहा कि मैं ब्रह्मा हूँ आपने बहुत कठिन तप किया है।
आपके परिवार की यह दुर्दशा शनि ने ही की है । आपने शनि को जीत लिया है । आपने पीपल के फल खाकर जीवंन जीया है । इसलिए आज से आपका नाम पिपलाद ऋषि के नाम जाना जाएगा।और आज से जो आपको याद करेगा उसके सात जन्म के पाप नष्ट हो जाएँगे।
तथा पीपल की पूजा करने से आज के बाद शनि कभी कष्ट नहीं देगा । ब्रह्मा जी ने पिपलाद बालक को कहा कि अब आप इस शनि को आकाश मे स्थापित कर दो । बालक ने शनि को ब्रह्माण्ड मे स्थापित कर दिया ।
तथा पिपलाद ऋषि ने शनि से यह वायदा लिया कि जो पीपल के वृक्ष की पूजा करेगा उसको आप कभी कष्ट नहीं दोगे । शनैश्चर ने ब्रह्मा जी के सामने यह वायदा ऋषि पिपलाद को दिया था।
उस दिन से यह परंपरा है जो ऋषि पिपलाद को याद करके शनिवार को पीपल के पेड़ की पूजा करता है उसको शनि की साढ़े साती , शनि की ढैया और शनि महादशा कष्ट कारी नहीं होती है ।
शनि की पूजा और व्रत एक वर्ष तक लगातार करनी चाहिए । शनि कों तिल और सरसो का तेल बहुत पसंद है इसलिए तेल का दान भी शनिवार को करना चाहिए । पूजा करने से तो दुष्ट मनुष्य भी प्रसन्न हो जाता है।
तो फिर शनि क्यो नहीं प्रसन्न होगा ? इसलिए शनि की पूजा का विधान तो भगवान ब्रह्मा ने दिया है ।

जानिए शनि की साढ़ेसाती कब देती है शुभ परिणाम

जानिए शनि की साढ़ेसाती कब देती है शुभ परिणाम


शनि की साढ़ेसाती ज्योतिष का सर्वाधिक चर्चित विषय है जिसे लेकर सभी व्यक्तियों के मन में जिज्ञासा भी रहती है और भय भी साढ़ेसाती की गणना के बारे में जैसा के सब जानते ही हैं जब गोचरवश शनि हमारी "जन्म राशि" से बारहवीं राशि में आता है तो साढ़ेसाती आरम्भ हो जाती है साढ़ेसाती के दौरान शनि ढाई साल हमारी राशि से बारहवीं राशि में ढाई साल हमारी राशि में और ढाई साल हमारी राशि से अगली राशि में गोचर करता है इस तरह साडेसात साल पूरे होते हैं....... साढ़ेसाती के परिणाम को समान्यतः देखें तो जब किसी व्यक्ति के जीवन में साढ़ेसाती का प्रेवेश होता है तो संघर्ष बढ़ने लगता है कार्यों में बाधायें आने लगती हैं व्यक्ति को बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ता है जीवन में उतार-चढाव बहुत बढ़ जाते हैं और साढ़ेसाती के दौरान उत्पन्न होने वाली ऐसी परिस्थितयां व्यावहारिक रूप से वास्तव में उत्पन्न भी होती ही हैं जैसा के हम अधिकांशतः लोगों के साथ देखते भी हैं...................पर अब यहाँ विशेष बात यह है के साढ़ेसाती हमेशा और प्रत्येक परिस्थिति में बुरा ही फल करे या साढ़ेसाती के अंतर्गत तीनो ढैय्या एक समान ही फल करें ऐसा आवश्यक नहीं हैं वास्तव में शनि की साढ़ेसाती का प्रभाव हमारी कुंडली की जन्मकालीन ग्रहस्थिति पर बहुत अधिक निर्भर करता है और प्रत्येक व्यक्ति की जन्मकालीन ग्रहस्थिति भिन्न भिन्न होने से साढ़ेसाती का प्रभाव सभी के लिए कुछ न कुछ प्रकार से भिन्न होता है जैसा के हम अधिकांशतः देखते हैं के साढ़ेसाती के दौरान व्यक्ति के जीवन में संघर्ष और बाधाएं बढ़ती है पर कुछ विशेष स्थितियों में साढ़ेसाती के दौरान बहुत शुभ फल भी प्राप्त होते हैं और शनि की साढ़ेसाती व्यक्ति को बहुत उच्च सफलता भी प्रदान करती है। .............................
किसी भी व्यक्ति पर चल रही साढ़ेसाती के दौरान यदि गोचर का शनि (तत्कालिक शनि) व्यक्ति की कुंडली में स्थित जन्मकालीन शनि पर गोचर करे अर्थात व्यक्ति की जन्म कुंडली में शनि जिस राशि में स्थित है उस राशि में साढ़ेसाती के दौरान का शनि आये तो ऐसे में शनि की साढ़ेसाती बहुत शुभ परिणाम देती है इसके अलावा साढ़ेसाती के दौरान यदि तत्कालिक शनि व्यक्ति की कुंडली में स्थित अपने मित्र ग्रहों (बुध, शुक्र) पर गोचर करता है तो भी साढ़ेसाती के दौरान अच्छे परिणाम मिलते हैं इसके अतिरिक्त जन्मकुंडली में बृहस्पति जिस राशि में स्थित है उस राशि में यदि साढ़ेसाती के दौरान शनि आता है तो भी साढ़ेसाती का वह समय व्यक्ति को बहुत शुभ परिणाम देता है तो निष्कर्षतः यदि किसी व्यक्ति पर साढ़ेसाती चल रही है और साढ़ेसाती के दौरान तत्कालिक शनि उस राशि में चल रहा हो जिस राशि में व्यक्ति की कुंडली में शनि, शुक्र, बुध या बृहस्पति स्थित है तो ऐसे में साढ़ेसाती होते हुए भी व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन और सफलता प्राप्त होती है............

साढ़ेसाती के दौरान जब तत्कालिक शनि व्यक्ति के जन्मकालिक शनि पर गोचर करता है या व्यक्ति की कुंडली में स्थित शनि से सातवीं राशि में जब तत्कालिक शनि आता है तो ऐसे में साढ़ेसाती होते हुए भी व्यक्ति को अपने करियर या आजीविका में उन्नति और अच्छी सफलता मिलती है....... इसी प्रकार जब कुंडली में स्थित जन्मकालिक बृहस्पति वाली राशि में तत्कालिक शनि आता है तो ऐसे में भी साढ़ेसाती होते हुए भी व्यक्ति की आजीविका में उन्नति होती है.............साढ़ेसाती के दौरान यदि तत्कालिक शनि व्यक्ति कुंडली में स्थित जन्मकालिक शुक्र पर गोचर करे तो ऐसे में साढ़ेसाती बहुत शुभ फल करती है और व्यक्ति के जीवन में भौतिक संसाधन और समृद्धि बढ़ती है…….
तो किसी भी व्यक्ति पर चल रही शनि की साढ़ेसाती के पूरे साढ़ेसात साल बुरा या एक जैसा ही परिणाम देंगे ऐसा आवश्यक नहीं है साढ़ेसाती का परिणाम जन्मकालीन ग्रहस्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए कुछ न कुछ प्रकार भिन्न होता है और साढ़ेसाती के दौरान तत्कालिक शनि हमारी जन्मकुंडली में स्थित किसी जन्मकालीन ग्रह पर तो गोचर नहींकर रहा है यह देखना बहुत आवश्यक होता है जो उस समय में व्यक्ति के लिए साढ़ेसाती के परिणाम को निश्चित करता है और जैसा हम यहाँ बता ही चुके हैं साढ़ेसाती के अंतर्गत पड़ने वाली तीनो ढैय्या में से जिस भी ढैय्या में शनि हमारी कुंडली में स्थित जन्मकालिक शनि शुक्र बुध और बृहस्पति पर गोचर करता है तो ऐसे में साढ़ेसाती का वो भाग व्यक्ति को बहुत शुभ परिणाम देता है

।।श्री हनुमते नमः।। 

Saturday, September 23, 2017

प्रथम भाव से व्यक्ति के शरीर, रूप, रंग, आकृति, स्वभाव, ज्ञान, बल, सुख, यश, गौरव, आयु तथा मानसिक स्तर का विचार

प्रथम भाव को लग्न, आत्मा, शरीर, होरा, उदय, आदि, के नाम से भी जाना जाता है| इस भाव से व्यक्ति के शरीर, रूप, रंग, आकृति, स्वभाव, ज्ञान, बल, सुख, यश, गौरव, आयु तथा मानसिक स्तर का विचार किया जाता है| लग्न को भावों में विशिष्ट श्रेणी प्रदान की गई है| लग्न एक केंद्र भी है, तो त्रिकोण भी| लग्न भाव का स्वामी(लग्नेश), चाहे वह नैसर्गिक पापी ग्रह हो या शुभ ग्रह, हमेशा शुभ ही माना जाता है| अतः लग्न व लग्नेश को फलित ज्योतिष में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है| इस भाव का कारक ग्रह सूर्य है, क्योंकि सूर्य ही जातक का जनक व उसकी आत्मा का अधिष्ठाता है|
प्रथम भाव से निम्नलिखित विषयों का विचार किया जाता है-
शरीर- शरीर का मोटा या दुबला होना जलीय एवं शुष्क ग्रहों और राशियों पर निर्भर करता है| अर्थात जब जलीय ग्रहों का संबंध अन्य ग्रहों की अपेक्षा प्रथम भाव पर अधिक पड़ता है तब जातक का शरीर मोटा होता है| परंतु अगर शुष्क ग्रहों और राशियों का संबंध लग्न पर अधिक पड़ता है तब जातक का शरीर दुबला होता है|
कद- लग्न पर जब शनि, राहु, बुध, गुरु आदि दीर्घ ग्रह एवं राशियों का प्रभाव पड़ता है तब जातक का शरीर लंबा होता है| परंतु जब मंगल, शुक्र आदि छोटे कद वाले ग्रह एवं राशियों का प्रभाव प्रथम भाव पर पड़ता है, तब व्यक्ति का कद छोटा होता है|
बालारिष्ट- प्रथम भाव व्यक्ति की शैशव अवस्था(बाल अवस्था) का प्रतीक है| अतः यदि लग्न के साथ-साथ लग्नेश व चन्द्र पर पाप व क्रूर ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य को बाल्य अवस्था में शारीरिक कष्ट होने की संभावना होती है| अगर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो बालारिष्ट से बचाव होता है|
स्वभाव- मनुष्य के स्वभाव का विचार लग्न, लग्नेश, चतुर्थ भाव, चतुर्थेश तथा चन्द्र से किया जाता है| किसी भी मनुष्य के स्वभाव का आकंलन करने में लग्न का बहुत महत्व होता है| इसका कारण यह है कि चतुर्थ भाव व्यक्ति के मन तथा हृदय से संबंधित है, ह्रदय तथा मन का प्रभाव मनुष्य के स्वभाव पर पूर्ण रूप से पड़ता है| चंद्रमा मन का प्रतीक है, मन से स्वभाव जुड़ा हुआ होता है| लग्न मनुष्य का सर्वस्व है, यह उसके सिर तथा विचार शक्ति को दर्शाता है| इसलिए जब चतुर्थ भाव, चतुर्थेश, चन्द्र, लग्न व लग्नेश पर शुभ ग्रहों का प्रभाव होता है तो व्यक्ति अच्छे स्वभाव वाला, सात्विक, दयालु तथा मिलनसार होता है| इसके विपरीत जब इन घटकों पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव होता है तब व्यक्ति क्रूर तथा दुष्ट स्वभाव का होता है|
जन्मकालीन स्थिति- लग्न तथा लग्नेश पर जैसे ग्रहों का प्रभाव होता है मनुष्य को उसी प्रकार की पारिवारिक स्थिति, कुल, सुख-दुःख आदि की प्राप्ति होती है| यदि लग्न, लग्नेश, चन्द्र, सूर्य तथा इनके अधिपतियों पर गुरु और शुक्र जैसे ब्राह्मण ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य का जन्म ब्राह्मण कुल में होता है| यदि इन घटकों पर सूर्य तथा मंगल जैसे क्षत्रिय ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य का जन्म क्षत्रिय कुल में होता है| यदि अधिकांश पर बुध तथा चन्द्र जैसे वैश्य ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य का जन्म वैश्य कुल में होता है| यदि अधिकांश पर शनि का प्रभाव हो तो शुद्र कुल में जन्म होता है| यदि अधिकांश घटकों पर राहु-केतु का प्रभाव हो तो मनुष्य का जन्म गैर हिन्दू जातियों में होने की संभावना होती है|
आयु- प्रथम भाव का मनुष्य की आयु से भी घनिष्ठ संबंध है| जब लग्न, लग्नेश के साथ-साथ चन्द्र, सूर्य, शनि, तृतीय तथा अष्टम भाव व इनके स्वामी बली हों तो मनुष्य की आयु में वृद्धि होती है और उसका स्वास्थ्य अच्छा रहता है| इसके विपरीत यदि इन पर पाप ग्रहों का प्रभाव हो अथवा यह घटक कमजोर हों तो व्यक्ति की अल्पायु होती है|
आजीविका- इसका विचार दशम भाव के अतिरिक्त लग्न से भी किया जाता है| कारण यह है कि लग्न मनुष्य का सर्वस्व है, वह धन है और धन कमाने वाला भी है| इसलिए सुदर्शन पद्दति के अनुसार लग्न, लग्नेश, चन्द्र, सूर्य और इनके अधिपति ग्रहों पर जिन-जिन ग्रहों का प्रभाव पड़ रहा हो तो मनुष्य की आजीविका उसी ग्रह से संबंधित होती है|
लग्नाधियोग- यदि प्रथम भाव के अतिरिक्त द्वितीय तथा द्वादश भाव पर भी शुभ ग्रहों का युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव हो तो लग्नाधियोग का निर्माण होता है| क्योंकि इस अवस्था में शुभ ग्रहों का प्रभाव लग्न और उससे द्वितीय तथा द्वादश भाव पर भी पड़ता है| अतः लग्न बली हो जाता है और व्यक्ति को जीवन में धन-ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है|
मान-सम्मान- यदि लग्न, लग्नेश, चन्द्र, सूर्य, दशम भाव तथा इनके अधिपति बली अवस्था में हों तो मनुष्य को जीवन में बहुत मान-सम्मान की प्राप्ति होती है| क्योंकि प्रथम भाव मनुष्य के मान-सम्मान, गौरव, यश तथा कीर्ति का प्रतीक है|
राज्य से अधिकार प्राप्ति- यदि लग्न लग्नेश, चन्द्र, सूर्य, दशम भाव तथा इनके अधिपतियों पर शुभ ग्ग्रहों का प्रभाव हो तो मनुष्य अत्यंत बलवान, सत्ताधारी, उच्च अधिकारी, तथा राज्य कृपा प्राप्त व्यक्ति होता है| क्योंकि लग्न, लग्नेश का बली होना मनुष्य को सम्मान, सता, शक्ति तथा राज्य कृपा प्रदान करता है

कुंडली में बनने वाले सुनफा योग, अनफा योग, दुर्धरा योग

कुंडली में बनने वाले सुनफा योग, अनफा योग, दुर्धरा योग *
*वैदिक ज्योतिष के महत्वपूर्ण योग सुनफा योग, अनफा योग तथा दुर्धरा योग को वैदिक ज्योतिष के अनुसार शुभ योग माना जाता है तथा किसी कुंडली में इन तीनों योगों में से किसी एक योग का बनना मुख्य रूप से कुंडली में चन्द्रमा की स्थिति के आधार पर ही तय किया जाता है।*
*सुनफा योग : वैदिक ज्योतिष में सुनफा योग की प्रचलित परिभाषा के अनुसार यदि किसी कुंडली में चन्द्रमा से अगले घर में कोई ग्रह स्थित हो तो कुंडली में सुनफा योग बनता है जो जातक को धन, संपत्ति तथा प्रसिद्धि प्रदान कर सकता है। कुछ ज्योतिषी यह मानते हैं कि इस योग की गणना के लिए सूर्य का विचार नहीं किया जाता जिसका अर्थ यह है कि किसी कुंडली में केवल सूर्य के ही चन्द्रमा से अगले घर में स्थित होने पर कुंडली में सुनफा योग नहीं बनता तथा ऐसी स्थिति में सूर्य के साथ कोई और ग्रह भी उपस्थित होना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि किसी कुंडली के चौथे घर में चन्द्रमा स्थित हैं तथा कुंडली के पांचवे घर में सूर्य के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रह स्थित है तो कुंडली में सुनफा योग बनता है। अपनी प्रचलित परिभाषा के अनुसार सुनफा योग बहुत सी कुंडलियों में बन जाता है किन्तु इनमें से बहुत से जातकों को इस योग के शुभ फल प्राप्त नहीं होते जिसके चलते इस योग के किसी कुंडली में बनने के लिए कुछ अन्य तथ्यों पर भी विचार करना आवश्यक है।*
*किसी कुंडली में सुनफा योग बनाने के लिए चन्द्रमा को उस कुंडली में शुभ होना चाहिए तथा चन्द्रमा से अगले घर में स्थित ग्रह अथवा ग्रहों को भी कुंडली में शुभ होना चाहिए तथा इनमें से किसी भी ग्रह के कुंडली में अशुभ होने की स्थिति में कुंडली में सुनफा योग नही बनेगा अथवा ऐसा सुनफा योग क्षीण होगा। इसके अतिरिक्त किसी कुंडली में सुनफा योग बनाने के लिए चन्द्रमा का किसी भी अशुभ ग्रह के प्रभाव से रहित होना भी आवश्यक है जिसका अर्थ यह है कि कुंडली में चन्द्रमा के साथ कोई अशुभ ग्रह स्थित न हो तथा कुंडली में कोई अशुभ ग्रह अपनी दृष्टि से भी चन्द्रमा पर अशुभ प्रभाव न डाल रहा हो क्योंकि किसी कुंडली में शुभ चन्द्रमा पर एक अथवा एक से अधिक अशुभ ग्रहों का प्रभाव कुंडली में बनने वाले सुनफा योग के शुभ फलों को कम अथवा बहुत कम कर सकता है। सुनफा योग के शुभ फल निश्चित करने से पहले कुंडली में चन्द्रमा का बल तथा स्थिति आदि भी देख लेनें चाहिएं। उदाहरण के लिए किसी कुंडली में चन्द्रमा के कर्क राशि में चौथे घर में स्थित होने से बनने वाला सुनफा योग कुंडली में चन्द्रमा के वृश्चिक राशि में बारहवें घर में स्थित होने से बनने वाले सुनफा योग की तुलना में कहीं अधिक प्रबल तथा शुभ फलदायी होगा।*
*अनफा योग : वैदिक ज्योतिष में अनफा योग की प्रचलित परिभाषा के अनुसार यदि किसी कुंडली में चन्द्रमा से पिछले घर में कोई ग्रह स्थित हो तो कुंडली में अनफा योग बनता है जो जातक को स्वास्थ्य, प्रसिद्धि तथा आध्यात्मिक विकास प्रदान कर सकता है। कुछ ज्योतिषी यह मानते हैं कि इस योग की गणना के लिए सूर्य का विचार नहीं किया जाता जिसका अर्थ यह है कि किसी कुंडली में केवल सूर्य के ही चन्द्रमा से पिछले घर में स्थित होने पर कुंडली में अनफा योग नहीं बनता तथा ऐसी स्थिति में सूर्य के साथ कोई और ग्रह भी उपस्थित होना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि किसी कुंडली के चौथे घर में चन्द्रमा स्थित हैं तथा कुंडली के तीसरे घर में सूर्य के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रह स्थित है तो कुंडली में अनफा योग बनता है। अपनी प्रचलित परिभाषा के अनुसार अनफा योग बहुत सी कुंडलियों में बन जाता है किन्तु इनमें से बहुत से जातकों को इस योग के शुभ फल प्राप्त नहीं होते जिसके चलते इस योग के किसी कुंडली में बनने के लिए कुछ अन्य तथ्यों पर भी विचार करना आवश्यक है।*
*सुनफा योग की भांति ही अनफा योग के किसी कुंडली में निर्माण के लिए भी कुंडली में चन्द्रमा तथा चन्द्रमा से पिछले घर में स्थित ग्रहों का शुभ होना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त कुंडली में चन्द्रमा पर किसी भी अशुभ ग्रह का स्थिति अथवा दृष्टि के माध्यम से अशुभ प्रभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि चन्द्रमा पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव कुंडली में बनने वाले अनफा योग के शुभ फलों को कम अथवा बहुत कम कर सकता है। कुंडली में बनने वाले अनफा योग के बारे में फलादेश करने से पहले कुंडली में चन्द्रमा की स्थिति तथा बल भी देख लेना चाहिए क्योंकि सुनफा योग की भांति ही अनफा योग के शुभ फलों में भी चन्द्रमा के बल तथा स्थिति के आधार पर बहुत अंतर आ सकता है।*
*दुर्धरा योग : वैदिक ज्योतिष में दुर्धरा योग की प्रचलित परिभाषा के अनुसार यदि किसी कुंडली में चन्द्रमा से पिछले घर में तथा चन्द्रमा से अगले घर में कोई ग्रह स्थित हो तो कुंडली में दुर्धरा योग बनता है जो जातक  को शारीरिक सुंदरता, स्वास्थ्य, संपत्ति तथा समृद्धि प्रदान कर सकता है। कुछ ज्योतिषी यह मानते हैं कि इस योग की गणना के लिए सूर्य का विचार नहीं किया जाता जिसका अर्थ यह है कि किसी कुंडली में केवल सूर्य के ही चन्द्रमा से पिछले अथवा अगले घर में स्थित होने पर कुंडली में दुर्धरा योग नहीं बनता तथा ऐसी स्थिति में सूर्य के साथ कोई और ग्रह भी उपस्थित होना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि किसी कुंडली के चौथे घर में चन्द्रमा स्थित हैं तथा कुंडली के तीसरे घर में सूर्य के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रह स्थित है तथा कुंडली के पांचवे ग्रह में भी सूर्य के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रह स्थित है तो कुंडली में दुर्धरा योग बनता है। अपनी प्रचलित परिभाषा के अनुसार दुर्धरा योग बहुत सी कुंडलियों में बन जाता है किन्तु इनमें से बहुत से जातकों को इस योग के शुभ फल प्राप्त नहीं होते जिसके चलते इस योग के किसी कुंडली में बनने के लिए कुछ अन्य तथ्यों पर भी विचार करना आवश्यक है।*
*सुनफा योग की भांति ही दुर्धरा योग के किसी कुंडली में निर्माण के लिए भी कुंडली में चन्द्रमा तथा चन्द्रमा से अगले तथा पिछले घर में स्थित ग्रहों का शुभ होना आवश्यक है क्योंकि चन्द्रमा के कुंडली में अशुभ होने से दुर्धरा योग बनेगा ही नहीं जबकि इस योग के निर्माण में शामिल अन्य ग्रहों के अशुभ होने से इस योग के फल कम अथवा बहुत कम हो जाएंगे। इसके अतिरिक्त कुंडली में चन्द्रमा पर किसी भी अशुभ ग्रह का स्थिति अथवा दृष्टि के माध्यम से अशुभ प्रभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि चन्द्रमा पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव कुंडली में बनने वाले दुर्धरा योग के शुभ फलों को कम अथवा बहुत कम कर सकता है। कुंडली में बनने वाले दुर्धरा योग के बारे में फलादेश करने से पहले कुंडली में चन्द्रमा की स्थिति तथा बल भी देख लेना चाहिए क्योंकि सुनफा योग की भांति ही दुर्धरा योग के शुभ फलों में भी चन्द्रमा के बल तथा स्थिति के आधार पर बहुत अंतर आ सकता है।*

Wednesday, September 20, 2017

कुंडली में कुछ बुरे योग जिनका निवारण जरुरी है

कुंडली में कुछ बुरे योग जिनका निवारण
जरुरी है,,,,
कुंडली में हम सामान्यतः राज
योगों की ही खोज करते हैं, किन्तु कई
बार स्वयं ज्योतिषी व कई बार जातक इन
दुर्योगों को नजरअंदाज कर जाता है,जिस कारण बार बार संशय
होता है की क्यों ये राजयोग फलित
नहीं हो रहे.आज ऐसे ही कुछ
दुर्योगों के बारे में बताने का प्रयास कर रहा हूँ,जिनके प्रभाव से
जातक कई योगों से लाभान्वित होने से चूक जाते हैं.सामान्यतः पाए
जाने वाले इन दोषों में से कुछ इस प्रकार हैं..
१. ग्रहण योग:
कुंडली में कहीं भी सूर्य
अथवा चन्द्र की युति राहू या केतु से
हो जाती है तो इस दोष का निर्माण होता है.चन्द्र
ग्रहण योग की अवस्था में जातक डर व घबराहट
महसूस करता है.चिडचिडापन उसके स्वभाव का हिस्सा बन
जाता है.माँ के सुख में
कमी आती है.किसी भी कार्य
को शुरू करने के बाद उसे सदा अधूरा छोड़ देना व नए काम के बारे में
सोचना इस योग के लक्षण हैं.अमूमन
किसी भी प्रकार के
फोबिया अथवा किसी भी मानसिक
बीमारी जैसे डिप्रेसन ,सिज्रेफेनिया,आ
दि इसी योग के कारण माने गए
हैं.यदि यहाँ चंद्रमा अधिक दूषित हो जाता है या कहें अन्य
पाप प्रभाव में
भी होता है,तो मिर्गी ,चक्कर व
मानसिक संतुलन खोने का डर भी होता है. सूर्य
द्वारा बनने वाला ग्रहण योग पिता सुख में
कमी करता है.जातक का शारीरिक
ढांचा कमजोर रह जाता है.आँखों व ह्रदय
सम्बन्धी रोगों का कारक
बनता है.सरकारी नौकरी या तो मिलती नहीं या उस
में निबाह मुस्किल होता है.डिपार्टमेंटल
इन्क्वाइरी ,सजा ,जेल,परमोशन में रुकावट सब
इसी योग का परिणाम है.
२.गुरु चंडाल योग:
गुरु की किसी भी भाव में
राहू से युति चंडाल योग बनती है.शरीर
पर घाव का एक आध चिन्ह लिए ऐसा जातक
भाग्यहीन होता है.आजीविका से जातक
कभी संतुष्ट नहीं होता,बोलने में
अपनी शक्ति व्यर्थ करता है व अपने सामने
औरों को ज्ञान में कम आंकता है जिस कारण स्वयं धोखे में
रहकर पिछड़ जाता है.ये योग जिस भी भाव में
बनता है उस भाव को साधारण कोटि का बना देता है.मतान्तर से
कुछ विद्वान् राहू की दृष्टी गुरु पर
या गुरु की केतु से युति को भी इस योग
का लक्षण मानते हैं.
३.दरिद्र योग:
लग्न या चंद्रमा से चारों केंद्र स्थान
खाली हों या चारों केन्द्रों में पाप ग्रह हों तो दरिद्र
योग होता है.ऐसा जातक अरबपति के घर में
भी जनम ले ले तो भी उसे
आजीविका के लिए भटकना पड़ता है,व दरिद्र
जीवन बिताने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
४. शकट योग
:चंद्रमा से छटे या आठवें भाव में गुरु हो व ऐसा गुरु लग्न से
केंद्र में न बैठा हो तो शकट योग का होना माना गया है.
ऐसा जातक जीवन भर किसी न
किसी कर्ज से दबा रहता है,व सगे
सम्बन्धी उससे घृणा करते हैं.वह अपने
जीवन में अनगिनत उतार चढ़ाव देखता है.ऐसा जातक
गाड़ी चलाने वाला भी हो सकता है.
५.उन्माद योग:
(a) यदि लग्न में सूर्य हो व सप्तम में मंगल हो, (b)
यदि लग्न में शनि और सातवें ,पांचवें या नवें भाव में मंगल हो (c)
यदि धनु लग्न हो व लग्न- त्रिकोण में सूर्य-चन्द्र
युति हों साथ ही गुरु तृतीय भाव
या किसी भी केंद्र में
हो तो गुरुजनों द्वारा उन्माद योग
की पुष्टि की गयी है.जातक
जोर जोर से बोलने वाला ,व गप्पी होता है.ऐसे में
यदि ग्रह बलिष्ट हों तो जातक पागल हो जाता है.
६. कलह योग:
यदि चंद्रमा पाप ग्रह के साथ राहू से युक्त हो १२ वें ५ वें
या ८ वें भाव में हो तो कलह योग माना गया है.जातक के सारे
जीवन भर किसी न
किसी बात कलह
होती रहती है व अंत में
इसी कलह के कारण तनाव में
ही उसकी मृत्यु
हो जाती है.
नोट:लग्न से घड़ी के विपरीत गिनने पर
चौथा-सातवां -दसवां भाव केंद्र स्थान होता है.पंचम व नवं भाव
त्रिकोण कहलाते हैं. साथ ही लग्न
की गिनती केंद्र व त्रिकोण दोनों में
होती है.

Monday, September 18, 2017

पुरूष की कुंडली में स्त्री सुख का कारक शुक्र होता है उसी तरह स्त्री की कुंडली में पति सुख का कारक ग्रह वॄहस्पति होता है. स्त्री की कुंडली में बलवान सप्तमेश होकर वॄहस्पति सप्तम भाव को देख रहा हो तो ऐसी स्त्री को अत्यंत उत्तम पति सुख प्राप्त होता है.
जिस स्त्री के द्वितीय, सप्तम, द्वादश भावों के अधिपति केंद्र या त्रिकोण में होकर वॄहस्पति से देखे जाते हों, सप्तमेश से द्वितीय, षष्ठ और एकादश स्थानों में सौम्य ग्रह बैठे हों, ऐसी स्त्री अत्यंत सुखी और पुत्रवान होकर सुखोपभोग करने वाली होती है.
पुरूष का सप्तमेश जिस राशि में बैठा हो वही राशि स्त्री की हो तो पति पत्नि में बहुत गहरा प्रेम रहता है.
[9/13, 13:06] ‪+91 82859 28687‬: दस अचूक उपाय



ज्योतिष में ग्रह गणना और कुंडली की ग्रहस्थिति के अनुसार किये जाने वाले फलित के अतिरिक्त ज्योतिष की उपाय शाखा अपना एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है ज्योतिषीय उपायों में किसी भी कमजोर ग्रह को बल प्रदान करने के लिए उपाय, ग्रहों के नकारात्मक प्रभाव से बचने के उपाय तथा जीवन की विभिन्न विपरीत परिस्थितियों के लिए बहुत से उपायों का वर्णन है, पर आज हम यहाँ विशेष रूप से बुध ग्रह को बली करने या मजबूत करने के लिए दस बहुत विशेष सरल और सटीक उपाय बता रहे हैं, वैसे तो ज्योतिष में प्रत्येक ग्रह का अपना अलग विशेष महत्व है पर बुध आज के समय में प्रत्येक व्यक्ति के लिए बहुत विशेष भूमिका निभाता है क्योंकि...

ज्योतिष में बुध को बुद्धि, कैचिंग पॉवर, तर्कशक्ति, निर्णय क्षमता, याददास्त, सोचने समझने की क्षमता, वाणी, बोलने की क्षमता, उच्चारण, व्यव्हार कुसलता, सूचना, संचार, यातायात, व्यापार, वाणिज्य, गणनात्मक विषय, लेखन, कम्युनिकेशन और गहन अध्ययन का कारक माना गया है और ये सभी घटक हमारे जीवन में बहुत अहम भूमिका निभाते हैं विशेषतः बुद्धि क्षमता की तो आज के समय में सर्वाधिक और हर जगह आवश्यकता होती है, इस के अलावा बुध का हमारे स्वास्थ और शरीर पर भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है बुध हमारे शरीर के बहुत विशेष घटकों को नियंत्रित करता है ज्योतिष की चिकित्सीय शाखा में बुध को मष्तिष्क, नर्वस-सिस्टम, गला, नसें, त्वचा, बोलने की क्षमता, याददाश्त आदि का प्रतिनिधित्व बुध ही करता है इसलिए यदि कुंडली में बुध कमजोर या पीड़ित हो तो व्यक्ति को कुछ विशेष स्वास्थ समस्यायों का सामना करना पड़ता है –

यदि कुंडली में बुध नीच राशि (मीन) में हो, छटे या आठवे भाव में स्थित हो, केतु या मंगल से पीड़ित हो, सूर्य के साथ समान अंश पर होने से पूर्णासत हो, षष्टेश अष्टमेश से पीड़ित हो या अन्य किसी भी प्रकार जब बुध बहुत कमजोर या पीड़ित हो ऐसे में व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता अधिक अच्छी नहीं होती सोचने समझने में समस्या होती है, शिक्षा में बाधा आती है, व्यक्ति व्यव्हार कुसाहल नहीं बन पाता और बहुत सी स्वास्थ समस्याएं जैसे त्वचा संबंधी समस्याएं हकलाहट या शब्दों को स्पष्ट रूप से ना बोल पाने की समस्या, नर्वससिस्टम और नसों से जुडी समस्याएं आदि भी संभावित होती है . . .

तो इस प्रकार यदि कुंडली में बुध कमजोर होने पर विभिन्न समस्याओं का सामना हो तो ऐसी में ये दस उपाय आपकी कुंडली में स्थित बुध को बली करने में बहुत सहायक होते हैं और चमत्कारिक प्रभाव दिखाते हैं –

दस अचूक उपाय –

1. प्रत्येक बुधवार को मोतीचूर के दो लड्डू गणेश जी को मंदिर में अर्पित करें।

2. ॐ ब्राम ब्रीम ब्रोम सः बुधाय नमः की एक माला रोज जाप करें।

3. हरी इलायची का दिन में दो तीन बार सेवन करें।

4. प्रत्येक बुधवार को गाय को हरा चारा खिलाएं।

5. घर में हरे पौधे लगाएं और उनकी देखभाल करें।

6. पक्षियों को रोज भोजन दें।

7. घर के पूजास्थल में बुद्धयान्त्र स्थापित करें।

8. महीने के एक बुधवार को साबुत मूंग की खिचड़ी गरीबों में बाटें।

9. प्रत्येक बुधवार को अपने घर की उत्तर दिशा में गाय के घी का दिया जलाएं।

10. किसी ज्योतिषी की सलाह के बाद पन्ना रत्न भी धारण कर सकते हैं।

तो यदि आपकी कुंडली में बुध कमजोर या पीड़ित स्थिति में है तो निश्चित ही ये उपाय आपके लिए बहुत सहायक होंगे और आपके बुध को बहुत बल प्रदान करेंगे।

।।श्री हनुमते