ज्योतिषीय दृष्टि में पितृदोष *
*बहुत बार देखने में आया है कि लोग धर्म परायण जीवनयापन करते है। ऐसे लोग दिन की शुरूआत ईश्वर स्मरण, देव आदि की पूजा-पाठ, मन्त्र जाप, मंदिर/ शिवालय आदि जाकर करते है। वह निरंतर तीर्थ यात्राएं भी करते रहते है। सदाचारी जीवनयापन करते है। झूठादि से परहेज रखते है। मांस-मदिरा, परस्त्री गमन से सर्वदा दूर रहते है। किसी का बुरा नहीं सोचते, उल्टा दूसरों के भले के बारे में सदैव सोचते रहते है। दूसरों की मदद के लिए हर पल तैयार रहते है। बावजूद इन सबके स्वंय अपने जीवन में संत्रास पीडित-परेशान रहते है। उन्हें अपने जीवन में निरंतर किसी न किसी तरह की परेशानी का सामना करना पड़ता है। एक तरह उनका पूरा जीवन ही अभावों से भरा, दुःख-दर्द, क्लेश, संताप से परिपूर्ण प्रतीत होता है। आर्थिक दृष्टि से ही नहीं, पारिवारिक दृष्टि से भी इन्हें नाना प्रकार की समास्याओं का सामना करना पड़ता है। पारिवारिक कलह के साथ पति-पत्नी में गहरे मतभेद उत्पन्न होना, तलाक-संबन्ध विच्छेद की नौबत बन जाना, जीवन साथी की असमय मौत तक जैसी अनेक विषमताओं का सामना करता पड़ता है। जीवन की ऐसी विषमताओं के पीछे पित्तरों के श्राप या पितृदोष को प्रमुख कारण माना जाता है।*
*ज्योतिष शास्त्र मेें द्वादश भाव और नवग्रहों की स्थिति के आधार पर पितृदोष का विचार किया जाता है। ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार जब कोई गृहस्थ गृहस्थाश्रम का सुख भोगता हुआ अपने ऋषि, देव और अपने पितृजनों के ऋण से मुक्त नहीं होता, तो उसे अगले जन्म में पितृदोष का सामना करता पड़ता है। पितृदोष के प्रभाव से ऐसे लोग विभिन्न तरह के दुःख, दर्द, संताप, भोगते हुए जीवनयापन करते है। ऐसे लोगों के स्वंय या संतान के विवाह में पर्याप्त विलंब होता है या गृहस्थ जीवन मं सदैव कलह-क्लेश ही बना रहता है। इनका जीवन एक तरह एकान्तिक जीवन बनकर रहता है। संतानहीनता भी पितृदोष का प्रमृख कारण है। निर्धन जीवन, निरंतर व्याधि ग्रस्त रहना और अपमानित व कलंकित जीवनयापन करना भी पितृदोष की विवषता है। पितृदोष के कारण इन्हें विभिन्न तरह के ज्ञात और अज्ञात शत्रु भी नाना प्रकार के कष्ट पहुंचाते रहते है।*
*ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्मकुंडली में निम्न ग्रह स्थितियां और ग्रह युतियां विद्यमान रहने पर पितृदोष माना जाता है-:*
*जब लग्न भाव पर राहु और शनि आदि के साथ अन्य अशुभ ग्रहों का प्रभाव पड़े, तो वह ग्रह योग पितृदोष बन जाते है।*
*जब लग्नेश नीच राशिस्थ होकर राहु एंव शनि के साथ योग अथवा दृष्टि संबंध बनाकर बैठे, तो यह भी पितृदोष का प्रमुख लक्षण बनता है।*
*अष्टम भाव में इस युति से धन की हानि का सामना करना पड़ता है। आयु घटती है। नवम्, भाग्य स्थान में इस युति के कारण भाग्योन्नति में निरंतर बाधाएं खड़ी होती है। जबकि दशम् या एकादश भाव में इस युति के प्रभाव से कार्य क्षेत्र, व्यवसाय, नौकरी, लाभ, पदोन्नति आदि में बार-बार विघ्न-बाधाएं आती है।*
*चन्द्र-बुध योग या फिर सूर्य-शनि के सम-सप्तक योग में बैठने को भी पितृदोष माना गया है। इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र संबन्धी विभिन्न ग्रंथों में सैकड़ों योगों का उल्लेख है, जो अपने प्रभाव से पितृदोष का रूप लेकर जातक को नाना प्रकार के कष्ट देकर सताते है और उसके जीवन को दुःख, क्लेश व संताप से भरते है।*
*जन्मांग के नवम् भाव में बृहस्पति और शुक्र की युति बनी हो अथवा दशम् भाव में चन्द्र पर शनि व केतु का प्रभाव हो, तो भी व्यक्ति पितृदोष ग्रस्त रहता है।*
*नवम् भाव में राहु की युति में बृहस्पति बैठे, तो भी पितृदोष के प्रभाव से जातक के भाग्य में उन्नति पर्याप्त विलंब एंव विघ्न-बाधाओं के बाद ही संभव होती है।*
*लग्न व पंचम भाव में शनि, राहु या केतु अथवा मंगल ग्रहों का अशुभ प्रभाव पड़े, तो भी जातक को पितृदोष के कारण संतान हानि अथवा संतान सुख की कमी का सामना करना पड़ता है।*
*सूर्य लग्न एंव सूर्य स्थित राशि स्वामी तथा चन्द्र लग्न एंव चन्द्र स्थित राशि स्वामी, जब राहु, शनि व केतु में से किसी एक या दो ग्रहों के बुरे प्रभाव में फंस जाएं, तो पितृदोष बनता है। सूर्य लग्न या चन्द्र लग्न अथवा उनकी स्थित राशि को भी लग्न स्वभाव माना जाता है। लग्न व लग्नेश किसी भी जन्मांग की आत्मा के रूप में माने जाते है। अतः इनके पीड़ित रहने से जातक/ जातिका को पितृदोष के कारण शारीरिक एंव मानसिक परेशानियों के साथ मानसिक तनाव, डिप्रेशन, अनिद्रा, स्त्री संबन्धी परेशानियां, संतान संबन्धी कष्ट एंव गृहक्लेश का सामना करना पड़ता है। इनके व्यवसाय या कारोवार में भी सदैव अस्थिर स्थितियां बनी रहती है। आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। जहां तक कि अपयश या अपमान भी झेलना पड़ता है।*
*जब किसी जन्मांग में व्यययेश लग्न भाव में, अष्टमेश पंचम भाव में एंव दशमेश अष्टम भाव में विराजमान हो, तो , तो भी पितृदोष जन्य स्थितियां निर्मित होती है। ऐसी स्थिति में जातक उच्च शिक्षा प्राप्त करने से तो वचिंत रहता ही है, संतान सुख पाने में भी उसे नाना प्रकार की विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है। अगर नीच बृहस्पति और राहु या शनि का यह योग सप्तम् भाव में बने, तो उसके दाम्पत्य जीवन पर निश्चित कुप्रभाव पड़ता है। इस कारण पति-पत्नी के मध्य कलह, क्लेश का वातावरण बना रहता है। अष्टम भाव में इस युति से धन की हानि का सामना करना पड़ता है। आयु घटती है। नवम्, भाग्य स्थान में इस युति के कारण भाग्योन्नति में निरंतर बाधाएं खड़ी होती है। जबकि दशम् या एकादश भाव में इस युति के प्रभाव से कार्य क्षेत्र, व्यवसाय, नौकरी, लाभ, पदोन्नति आदि में बार-बार विघ्न-बाधाएं आती है।*
*चन्द्र-बुध योग या फिर सूर्य-शनि के सम-सप्तक योग में बैठने को भी पितृदोष माना गया है। इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र संबन्धी विभिन्न ग्रंथों में सैकड़ों योगों का उल्लेख है, जो अपने प्रभाव से पितृदोष का रूप लेकर जातक को नाना प्रकार के कष्ट देकर सताते है और उसके जीवन को दुःख, क्लेश व संताप से भरते है।*
*पितृदोष शाति के उपाय-:*
*ज्योतिष शास्त्र और कर्मकाण्ड संबन्धी ग्रंथों में पितृदोष निवारण हेतु अनेक तरह के उपाय बताये गए है। इन उपायों को विधिवत् सम्पन्न करने से व्यक्ति को पितृदोष संबन्धी कष्टों से काफी हद तक मुक्ति मिल जाती है।*
*पितृदोष निवारण के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ दिवंगत आत्मीयजनों का श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना एक अनिवार्य विधान है। श्राद्ध कर्म के रूप में पितृ पूजन, तर्पण, ब्राह्यण भोजन, वस्त्र, फल, अनाज आदि की दान- दक्षिण से पितृ संतुष्ट होते है और अपने कुलजनों पर प्रसन्न होकर उन्हें अपने आर्शीवाद स्वरूप विभिन्न भोग एंव ऐश्वर्यपूर्ण जीवनयापन करने में मदद करते हैं।*
*बहुत बार देखने में आया है कि लोग धर्म परायण जीवनयापन करते है। ऐसे लोग दिन की शुरूआत ईश्वर स्मरण, देव आदि की पूजा-पाठ, मन्त्र जाप, मंदिर/ शिवालय आदि जाकर करते है। वह निरंतर तीर्थ यात्राएं भी करते रहते है। सदाचारी जीवनयापन करते है। झूठादि से परहेज रखते है। मांस-मदिरा, परस्त्री गमन से सर्वदा दूर रहते है। किसी का बुरा नहीं सोचते, उल्टा दूसरों के भले के बारे में सदैव सोचते रहते है। दूसरों की मदद के लिए हर पल तैयार रहते है। बावजूद इन सबके स्वंय अपने जीवन में संत्रास पीडित-परेशान रहते है। उन्हें अपने जीवन में निरंतर किसी न किसी तरह की परेशानी का सामना करना पड़ता है। एक तरह उनका पूरा जीवन ही अभावों से भरा, दुःख-दर्द, क्लेश, संताप से परिपूर्ण प्रतीत होता है। आर्थिक दृष्टि से ही नहीं, पारिवारिक दृष्टि से भी इन्हें नाना प्रकार की समास्याओं का सामना करना पड़ता है। पारिवारिक कलह के साथ पति-पत्नी में गहरे मतभेद उत्पन्न होना, तलाक-संबन्ध विच्छेद की नौबत बन जाना, जीवन साथी की असमय मौत तक जैसी अनेक विषमताओं का सामना करता पड़ता है। जीवन की ऐसी विषमताओं के पीछे पित्तरों के श्राप या पितृदोष को प्रमुख कारण माना जाता है।*
*ज्योतिष शास्त्र मेें द्वादश भाव और नवग्रहों की स्थिति के आधार पर पितृदोष का विचार किया जाता है। ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार जब कोई गृहस्थ गृहस्थाश्रम का सुख भोगता हुआ अपने ऋषि, देव और अपने पितृजनों के ऋण से मुक्त नहीं होता, तो उसे अगले जन्म में पितृदोष का सामना करता पड़ता है। पितृदोष के प्रभाव से ऐसे लोग विभिन्न तरह के दुःख, दर्द, संताप, भोगते हुए जीवनयापन करते है। ऐसे लोगों के स्वंय या संतान के विवाह में पर्याप्त विलंब होता है या गृहस्थ जीवन मं सदैव कलह-क्लेश ही बना रहता है। इनका जीवन एक तरह एकान्तिक जीवन बनकर रहता है। संतानहीनता भी पितृदोष का प्रमृख कारण है। निर्धन जीवन, निरंतर व्याधि ग्रस्त रहना और अपमानित व कलंकित जीवनयापन करना भी पितृदोष की विवषता है। पितृदोष के कारण इन्हें विभिन्न तरह के ज्ञात और अज्ञात शत्रु भी नाना प्रकार के कष्ट पहुंचाते रहते है।*
*ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्मकुंडली में निम्न ग्रह स्थितियां और ग्रह युतियां विद्यमान रहने पर पितृदोष माना जाता है-:*
*जब लग्न भाव पर राहु और शनि आदि के साथ अन्य अशुभ ग्रहों का प्रभाव पड़े, तो वह ग्रह योग पितृदोष बन जाते है।*
*जब लग्नेश नीच राशिस्थ होकर राहु एंव शनि के साथ योग अथवा दृष्टि संबंध बनाकर बैठे, तो यह भी पितृदोष का प्रमुख लक्षण बनता है।*
*अष्टम भाव में इस युति से धन की हानि का सामना करना पड़ता है। आयु घटती है। नवम्, भाग्य स्थान में इस युति के कारण भाग्योन्नति में निरंतर बाधाएं खड़ी होती है। जबकि दशम् या एकादश भाव में इस युति के प्रभाव से कार्य क्षेत्र, व्यवसाय, नौकरी, लाभ, पदोन्नति आदि में बार-बार विघ्न-बाधाएं आती है।*
*चन्द्र-बुध योग या फिर सूर्य-शनि के सम-सप्तक योग में बैठने को भी पितृदोष माना गया है। इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र संबन्धी विभिन्न ग्रंथों में सैकड़ों योगों का उल्लेख है, जो अपने प्रभाव से पितृदोष का रूप लेकर जातक को नाना प्रकार के कष्ट देकर सताते है और उसके जीवन को दुःख, क्लेश व संताप से भरते है।*
*जन्मांग के नवम् भाव में बृहस्पति और शुक्र की युति बनी हो अथवा दशम् भाव में चन्द्र पर शनि व केतु का प्रभाव हो, तो भी व्यक्ति पितृदोष ग्रस्त रहता है।*
*नवम् भाव में राहु की युति में बृहस्पति बैठे, तो भी पितृदोष के प्रभाव से जातक के भाग्य में उन्नति पर्याप्त विलंब एंव विघ्न-बाधाओं के बाद ही संभव होती है।*
*लग्न व पंचम भाव में शनि, राहु या केतु अथवा मंगल ग्रहों का अशुभ प्रभाव पड़े, तो भी जातक को पितृदोष के कारण संतान हानि अथवा संतान सुख की कमी का सामना करना पड़ता है।*
*सूर्य लग्न एंव सूर्य स्थित राशि स्वामी तथा चन्द्र लग्न एंव चन्द्र स्थित राशि स्वामी, जब राहु, शनि व केतु में से किसी एक या दो ग्रहों के बुरे प्रभाव में फंस जाएं, तो पितृदोष बनता है। सूर्य लग्न या चन्द्र लग्न अथवा उनकी स्थित राशि को भी लग्न स्वभाव माना जाता है। लग्न व लग्नेश किसी भी जन्मांग की आत्मा के रूप में माने जाते है। अतः इनके पीड़ित रहने से जातक/ जातिका को पितृदोष के कारण शारीरिक एंव मानसिक परेशानियों के साथ मानसिक तनाव, डिप्रेशन, अनिद्रा, स्त्री संबन्धी परेशानियां, संतान संबन्धी कष्ट एंव गृहक्लेश का सामना करना पड़ता है। इनके व्यवसाय या कारोवार में भी सदैव अस्थिर स्थितियां बनी रहती है। आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। जहां तक कि अपयश या अपमान भी झेलना पड़ता है।*
*जब किसी जन्मांग में व्यययेश लग्न भाव में, अष्टमेश पंचम भाव में एंव दशमेश अष्टम भाव में विराजमान हो, तो , तो भी पितृदोष जन्य स्थितियां निर्मित होती है। ऐसी स्थिति में जातक उच्च शिक्षा प्राप्त करने से तो वचिंत रहता ही है, संतान सुख पाने में भी उसे नाना प्रकार की विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है। अगर नीच बृहस्पति और राहु या शनि का यह योग सप्तम् भाव में बने, तो उसके दाम्पत्य जीवन पर निश्चित कुप्रभाव पड़ता है। इस कारण पति-पत्नी के मध्य कलह, क्लेश का वातावरण बना रहता है। अष्टम भाव में इस युति से धन की हानि का सामना करना पड़ता है। आयु घटती है। नवम्, भाग्य स्थान में इस युति के कारण भाग्योन्नति में निरंतर बाधाएं खड़ी होती है। जबकि दशम् या एकादश भाव में इस युति के प्रभाव से कार्य क्षेत्र, व्यवसाय, नौकरी, लाभ, पदोन्नति आदि में बार-बार विघ्न-बाधाएं आती है।*
*चन्द्र-बुध योग या फिर सूर्य-शनि के सम-सप्तक योग में बैठने को भी पितृदोष माना गया है। इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र संबन्धी विभिन्न ग्रंथों में सैकड़ों योगों का उल्लेख है, जो अपने प्रभाव से पितृदोष का रूप लेकर जातक को नाना प्रकार के कष्ट देकर सताते है और उसके जीवन को दुःख, क्लेश व संताप से भरते है।*
*पितृदोष शाति के उपाय-:*
*ज्योतिष शास्त्र और कर्मकाण्ड संबन्धी ग्रंथों में पितृदोष निवारण हेतु अनेक तरह के उपाय बताये गए है। इन उपायों को विधिवत् सम्पन्न करने से व्यक्ति को पितृदोष संबन्धी कष्टों से काफी हद तक मुक्ति मिल जाती है।*
*पितृदोष निवारण के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ दिवंगत आत्मीयजनों का श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना एक अनिवार्य विधान है। श्राद्ध कर्म के रूप में पितृ पूजन, तर्पण, ब्राह्यण भोजन, वस्त्र, फल, अनाज आदि की दान- दक्षिण से पितृ संतुष्ट होते है और अपने कुलजनों पर प्रसन्न होकर उन्हें अपने आर्शीवाद स्वरूप विभिन्न भोग एंव ऐश्वर्यपूर्ण जीवनयापन करने में मदद करते हैं।*
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